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________________ श्रध्याय ६ सूत्र ८ ६७६ ६ -- कर्मका उदय दो तरहसे होता है: - प्रदेशउदय और विपाकउदय | जब जीव विकार करता है तव उस उदयको विपाकउदय कहते हैं और यदि जीव विकार न करे तो उसे प्रदेशउदय कहते हैं । इस अध्याय में संवर निर्जराका वर्णन | यदि जीव विकार करे तो उसके न परीषह जय हो और न संवर निर्जरा हो । परीषह जयसे संवर निर्जरा होती है । दसवे - ग्यारहवे और बारहवे गुणस्थानमे भोजन-पानका परीषह जय कहा है; इसीलिये वहाँ उस सम्बन्धी विकल्प या बाह्य क्रिया नही होती । ७- - परीषह जयका यह स्वरूप तेरहवे गुणस्थानमे विराजमान तीर्थंकर भगवान श्रीर सामान्य केवलियोके भी लागू होता है । इसीलिये उनके भी क्षुधा, तृषा आदि भाव उत्पन्न ही नही होते और भोजन - पानकी वाह्य क्रिया भी नही होती । यदि भोजन पानकी बाह्य क्रिया हो तो वह परीषह जय नही कहा जा सकता, परीषहजय तो सवर - निर्जराका कारण है | यदि भूख प्यास श्रादिके विकल्प होने पर भी क्षुधा परोषहजय तृषा परीषहजय आदि माना जावे तो परीषहजय संवर- निर्जराका कारण न ठहरेगा । ८ - श्री नियमसारकी छुट्टी गाथामें भगवान श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है कि- १ क्षुधा, २ तृषा, ३ भय, ४ रोष, ५ राग, ६ मोह, ७ चिंता, ८ जरा, ह रोग, १० मरण, ११ स्वेद - पसीना, १२ खेद, १३ मदघमण्ड, १४ रति, १५ विस्मय, १६ निद्रा, १७ जन्म और १५ उद्वेग ये अठारह महादोष आप्त श्रहंत वीतराग भगवानके नही होते । ६- भगवानके उपदिष्ट मागंसे न डिगने और उस मार्ग में लगातार प्रवर्तन करनेसे कर्मका द्वार रुक जाता है और इसीसे संवर होता है, तथा पुरुषार्थ के कारणसे निर्जरा होती है और उससे मोक्ष होता है, इसलिये परीषह सहना योग्य है । १०- परीषह जयका स्वरूप और उस सम्बन्धी होनेवाली भूल परीषह जयका स्वरूप ऊपर कहा गया है कि क्षुघादि लगने पर उस सम्बन्धी विकल्प भी न होने-न उठनेका नाम परीषह जय है । कितने
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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