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मोक्षशास्त्र जीव दुःखों की परम्परा से क्योंकर मुक्त हों इसका उपाय और उसका वीतरागी विज्ञान इस शास्र में बताया गया है, इसीलिये इसका नाम 'मोक्षशास्त्र रखा गया है।
मूलभूत भूल के बिना दुःख नही होता, और उस भूलके दूर होने पर सुख हुये विना नही रह सकता,-यह अबाधित सिद्धान्त है । वस्तुका यथार्थ स्वरूप समझे बिना वह भूल दूर नही होती; इसलिये इस शास्त्र में वस्तु का यथार्थ स्वरुप समझाया गया है, इसीलिये इसका नाम 'तत्वार्थसूत्र' भी रखा गया है।
(३) यदि जीवको वस्तुके यथार्थ -स्वरूप सम्बन्धी मिथ्या मान्यता [Wrong Belief] न हो तो ज्ञान मे भूल न हो। जहाँ मान्यता सच्ची होती है वहाँ ज्ञान सच्चा ही होता है। सच्ची मान्यता और सच्चे ज्ञान पूर्वक ही यथार्थ प्रवृत्ति होती है। इसलिए आचार्य देवने इस शास्त्र का प्रारम्भ करते हुए प्रथम अध्याय के पहले ही सूत्र मे यह सिद्धान्त बताया है कि सच्ची मान्यता और सच्चे ज्ञान पूर्वक होने वाली सच्ची प्रवृत्ति द्वारा ही जीव दु ख से मुक्त हो सकते है।
(४) 'स्वयं कौन है। इस सम्बन्ध मे जगत के जीवों की भारी भूल चली आ रही है। बहुत से जीव शरीर को अपना स्वरूप मानते है, इसलिए वे शरीर की रक्षा करने के लिए निरन्तर अनेक प्रकार के प्रयत्न करते रहते है। जव कि जीव शरीर को अपना मानता है तव जिसे वह ममभाता है कि यह गारीरिक सुविधा चेतन या जड़ पदार्थों की ओर से मिलती है उनकी ओर उसे राग होता ही है, और जिसे वह समझता है कि अमुविधा नेतन या जड पदार्थों की ओर से मिलती है उनकी ओर उसे द्वेग भी होता ही है । और इस प्रकार की धारणा से जीव को पाकुलता बनी ही रहती है।
(1.) जीव को उन महान् भृलको शास्त्र मे 'मिथ्या दर्गन' कहा गया । मिज्या मान्यता होती है वहां ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या ही नीना, मनि मियादगंनस्पी भूलको महापाप भी कहा जाता है ।