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मंगलाचरण
मिथ्यादर्शन भारी भूल है और वह सर्व दुःखों की महान् बलवती जड़ है, - जीवों को ऐसा लक्ष न होनेसे वह लक्ष करानेके लिए और वह भूल दूर करके जीव अविनाशी सुखकी ओर पर रखे इस हेतु से आचार्य देवने इस शास्त्र में सबसे पहला शब्द 'सम्यग्दर्शन' प्रयुक्त किया है । सम्यग्दर्शन के प्रगट होते ही उसी समय ज्ञान सच्चा हो जाता है, इसलिये दूसरा शब्द 'सम्यग्ज्ञान' प्रयुक्त किया गया है; और सम्यग्दर्शन - ज्ञान पूर्वक ही सम्यकूचारित्र होता है इसलिये 'सम्यक् चारित्र' शब्द को तीसरे रखा है । इस प्रकार तीन शब्दों का प्रयोग करने से कहीं लोग यह न मान बैठे कि'सच्चा सुख प्राप्त करने के तीन मार्ग हैं' इसलिये प्रथम सूत्र मे ही यह बता दिया है कि 'तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है' 1
(६) यदि जीव को सच्चा सुख चाहिये तो पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही चाहिए । जगतमे कौन कौन से पदार्थ है, उनका क्या स्वरूप है, उनका कार्यक्षेत्र क्या है, जीव क्या है, वह क्यों दुःखी होता है, - इसकी यथार्थ समझ हो तब ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, इसलिये आचार्यदेवने दश अध्यायोमे सात तत्त्वों के द्वारा वस्तु स्वरूप बतलाया है । (७) इस - मोक्षशास्त्र के दश अध्यायों में निम्नलिखित विषय लिये
गये हैं;
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१ अध्याय मे - मोक्ष का उपाय और जीव के ज्ञान की अवस्थाओं का वर्णन है ।
२ अध्याय मे - जीव के भाव, लक्षण और शरीर के साथ जीवका सम्बन्ध वर्णन किया गया है ।
३-४ अध्याय में -विकारी जीवो के रहने के क्षेत्रों का वर्णन है । इस प्रकार प्रथम चार अध्यायों मे पहले जीव तत्त्व का वर्णन किया गया है ।
५ अध्याय में - दूसरे अजीव तत्त्वका वर्णन है ।
६-७ अध्याय में - जीवके नवीन विकारभाव (आस्रव) तथा उनका निमित्त पाकर जीवका सूक्ष्म जड़कर्मके साथ होने