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मोक्षशास्त्र वाला सम्बन्ध बताया है । इसप्रकार तीसरे आस्रव
तत्त्व का वर्णन किया है। ८ अध्याय में यह बताया गया है कि जीव का जड़ कर्मों के साथ
किस प्रकार बन्ध होता है और वह जड़कर्म कितने समय तक जीव के साथ रहते है। इस प्रकार इस
अध्यायमें चौथे बन्ध तत्वका वर्णन किया गया है । ६ अध्याय मे-यह बताया गया है कि जीव के अनादिकाल से न
होने वाले धर्म का प्रारम्भ सवर से होता है, जीव की यह अवस्था होने पर उसे सच्चे सुख का प्रारम्भ होता है, और क्रमशः शुद्धिके बढ़ने पर विकार दूर होता है, उससे निर्जरा अर्थात् जड़कर्मके साथके बन्ध का अंशतः प्रभाव होता है । इस प्रकार नववे अध्याय मे पांचवां और छट्ठा अर्थात् संवर और
निर्जरा तत्त्व बताया गया है। १० अध्याय में-जीवकी शुद्धि की पूर्णता, सर्व दुःखों से अविनाशी
मुक्ति और सम्पूर्ण पवित्रता-मोक्ष तत्त्व है, इसलिये आचार्य देवने सातवाँ मोक्ष तत्त्व दशवे अभ्याय में
बतलाया है। (८) मंगलाचरणमे भगवानको 'कर्मरूपी पर्वतो को भेदनेवाला' कहा है। कर्म दो प्रकार के है:-१-भावकर्म, २-द्रव्यकर्म । जब जीव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से भावकर्मरूपी पर्वतोंको दूर करता है तब द्रव्यकर्म स्वयं ही अपने से हट जाते है-नष्ट हो जाते हैं; ऐसा जीवकी शुद्धता और कर्मक्षय का निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध है; यहाँ यही बताया गया है। जीव जड़कर्म को परमार्थतः नष्ट कर सकता है, यह कहने का आशय नही है।
(E) मंगलाचरणमे नमस्कार करते हुये देवागमन, समोशरण, चामर और दिव्यशरीरादि पुण्य-विभूतियों का उल्लेख नही किया गया है