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________________ ३५४ मोक्षशास्त्र सूत्र में अनुदिश नाम नहीं है परन्तु 'नवसु' पदसे उसका ग्रहण हो जाता है। नव और ग्रैवेयक इन दोनोंमें सातवीं विभक्ति लगाई गई है वह बताती है कि प्रैवेयकसे नव ये जुदे स्वर्ग हैं। ३. सौधर्मादिक एक एक विमानमें एक एक जिनमंदिर अनेक विभूति सहित होते है। और इद्रके नगरके बाहर अशोकवन,आम्रवन इत्यादि होते है। उन बनमें एक हजार योजन ऊँचा और पाँचसौ योजन चौड़ा एक चैत्यवृक्ष है उसकी चारों दिशामें पल्यंकासन जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा है । ४. इन्द्रके इस स्थानमण्डपके अग्रभागमें मानस्थंभ होता है उस मानस्थंभमें तीर्थकर देव जब गृहस्थदशामे होते हैं, उनके पहिनने योग्य प्राभरणोंका रत्नमई पिटारा होता है। उसमेंसे इन्द्र आभरण निकालकर तीर्थंकर देवको पहुँचाता है । सौधर्मके मानस्थंभके रत्नमई पिटारेमें भरतक्षेत्रके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं । ऐशान स्वर्गके मानस्थंभके पिटारेमें ऐरावतक्षेत्रके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं। सानत्कुमारके मानस्थम्भके पिटारेमें पूर्व विदेहके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं। महेन्द्रके मानस्थम्भके पिटारेमें पश्चिम विदेहके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं । इसलिये वे मानस्थम्भ देवोंसे पूज्यनीय हैं । इन मानस्थम्भोंके पास ही आठ योजन चौड़ा, आठ योजन लम्बा, तथा ऊंचा उपपाद गृह है। उन उपपादगृहोंमें एक रत्न मई शय्या होती है, वह इन्द्रका जन्म स्थान है । उस उपपादगृहके पासमे ही अनेक शिखरवाले जिनमंदिर हैं । उनका विशेष वर्णन त्रिलोकसारादि ग्रंथों मेंसे जानना चाहिये ॥ १९ ॥ वैमानिक देवोंमें उत्तरोचर अधिकता स्थितिप्रभावसुखद्यतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि विषयतोऽधिकाः ॥२०॥ अर्थ- आयु, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याकी विशुद्धि, इन्द्रियोंका विषय और अवधिज्ञानका विषय ये सब ऊपर ऊपरके विमानोंमे (वैमानिक देवोंके ) अधिक हैं।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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