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अध्याय ४ सूत्र १७-१८-१९
१३५३ पपन्न कहते है; तथा सोलहवें स्वर्गसे ऊपर जो देव उत्पन्न होते हैं उन्हें कल्पातीत कहते है ॥ १७ ॥
कल्पोंकी स्थितिका क्रम
उपयु परि ॥१८॥ अर्थ-सोलह स्वर्गके आठ युगल, नव अवेयक, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर ये सब विमान क्रमसे ऊपर ऊपर है ॥ १८ ॥
वैमानिक देवोंके रहनेका स्थान सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रसतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोनवसुप्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु
सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १६ ॥ अर्थ-सौधर्म-ऐशान, सनत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लातवकापिष्ट, शुक्र-महाशुक्र, सतार-सहस्रार इन छह युगलोके बारह स्वर्गोमें, आनत-प्राणत ये दो स्वर्गोमे, प्रारण-अच्युत ये दो स्वर्गोमें, नव ग्रेवेयक विमानोमें, नव अनुदिश विमानोंमे और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तर विमानोंमे वैमानिक देव रहते हैं।
टीका १. नव वेयको के नाम-(१) सुदर्शन, (२) अमोघ, (३) सुप्रबुद्ध, (४) यशोधर, (५) सुभद्र, (६) विशाल, (७) सुमन, (८) सौमन और ( 8 ) प्रीतिकर ।
२. नव अनुदिशोंके नाम-(१) आदित्य, ( २ ) अचि, (३) अचिमाली, (४) वैरोचन, (५) प्रभास, (६) अचिप्रभ, (७) अर्चिमध्य ( ८ ) अचिरावर्त और (६ ) अचिविशिष्ठ ।