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मोक्षशास्त्र
प्रश्न- सम्यक्मतिज्ञानी दर्शनमोहनीयं प्रकृतिके पुद्गलोंको प्रत्यक्ष नही देख सकता, और उसके पुद्गल उदयरूप हों तथा जीव उसमें युक्त होता हो तो क्या उसकी भूल नहीं होगी ?
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उत्तर(र-यदि भूल होती है तो वह ज्ञान विपरीत होगा, और इसलिए = वह ज्ञान 'सम्यक्' नहीं कहला सकता । जैसे शरीरंके बिगड़नेपर यह असातावेदनीयका उदय है, सातावेदनीयका उदय नहीं हैं - ऐसा कर्मके : रजकरणोको प्रत्यक्ष देखे बिना श्रुतज्ञानके बलसे यथार्थ जान लिया जाता है, उसी प्रकार अपने ज्ञान अनुभवसे श्रुतज्ञानके बलसे यह सम्यक् (यथार्थं ) जाना जा सकता है कि दर्शनमोहनीय कर्म उदयरूप नही है |
प्रश्न- क्या सम्यक्मतिज्ञान यह जान सकता है कि अमुकजीव भव्य है या भव्य ?
उत्तर- इस संबंध मे श्री धवला शास्त्रमे ( पुस्तक ६ पृष्ठ १७ में ) लिखा है कि- अवग्रहसे ग्रहरण किये गये अर्थको विशेष जाननेकी आकांक्षा 'हा' है । जैसे- किसी पुरुषको देखकर 'यह भव्य है या अभव्य ?' इस प्रकारको विशेष परीक्षा करना सो 'ईहाज्ञान' है । ईहाज्ञान सदेहरूप नहीं होता, क्योकि ईहात्मक विचार बुद्धिसे संदेहका विनाश हो जाता है । संदेह से ऊपर और अवायसे नीचे तथा मध्यमें प्रवृत्त होनेवाली विचारबुद्धिका नाम ईहा है ।
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ईहाज्ञानसे जाने गये पदार्थ विषयक संदेहका दूर हो जाना सो 'वाय' (निर्णय) है । पहले ईहा ज्ञानसे 'यह भव्य है या प्रभव्य ?" इसप्रकार नवे रूप बुद्धि के द्वारा विषय किया गया जीव 'अभव्य नहीं भव्य श्री क्योकि उनमें भव्यत्वके अविनाभावी सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र गुण गद है, कार उत्पन हुये 'चयँ' (निश्वय) ज्ञानका नाम 'अवाय' है । सिद्ध होता है न सम्यक्मतिज्ञान यह यथार्थतया निश्चय कि अपने तथा परको सम्यग्दर्शन है ।