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अध्याय १ सूत्र ११ :
सूत्र ९-१० का सिद्धांत - नौवें सूत्रमें कथित पाँच सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण हैं, उनके अतिरिक्त दूसरे लोग भिन्न भिन्न प्रमाण कहते है, किन्तु वह ठीक नहीं है। जिस जीव को सम्यग्ज्ञान हो जाता है वह अपने सम्यक् मति और सम्यक् श्रुतज्ञानके द्वारा अपनेको सम्यक्त्व होनेका निर्णय कर सकता है, और वह ज्ञान प्रमाण अर्थात् सच्चा ज्ञान है ॥ १० ॥
परोक्ष प्रमाणके भेद
आद्य परोक्षम् ॥११॥ अर्थ-[प्राधे ] प्रारंभके दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान [परोक्षम् ] परोक्ष प्रमाण हैं।
टीका यहां प्रमाण अर्थात् सम्यग्ज्ञानके भेदोमेसे प्रारंभके दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । यह ज्ञान परोक्ष प्रमाण है इसलिये उन्हें संशयवान या भूलयुक्त नही मान लेना चाहिये; क्योकि वे सर्वथा सच्चे ही है। उनके उपयोगके समय इंद्रिय या मन निमित्त होते है, इसलिये परापेक्षाके कारण उन्हे परोक्ष कहा है; स्व-अपेक्षासे पाँचो प्रकारके ज्ञान प्रत्यक्ष है।
प्रश्न-तब क्या सम्यक्मतिज्ञानवाला जीव यह जान सकता है कि मुझे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन है ?
उत्तर-ज्ञान सम्यक् है इसलिए अपनेको सम्यग्ज्ञान होनेका निर्णय भली भाँति कर सकता है; और जहां सम्यग्ज्ञान होता है वहाँ सम्यग्दर्शन अविनाभावी होता है, इसलिये उसका भी निर्णय कर ही लेता है। यदि निर्णय नही कर पाये तो वह अपना अनिर्णय अर्थात् अनध्यवसाय कहलायगा, और ऐसा होने पर उसका वह ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलायगा।