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अध्याय १ सूत्र ११
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जब सम्यग्दृष्टि जीव अपने उपयोग में युक्त होता है तब वे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष होते | यह दशा चौथे गुरणस्थानसे होती है । मतिश्रुतात्मक भावमन स्वानुभूतिके समय विशेष दशावाला होता है, फिर भी श्रेणिसमान तो नहीं किन्तु अपनी भूमिका के योग्य निर्विकल्प होता है, इसलिए मति श्रुतात्मक भावमन स्वानुभूति के समय प्रत्यक्ष माना गया है । मति श्रुत ज्ञानके बिना केवलज्ञानकी उत्पत्ति नही होती उसका यहाँ कारण है । ( अवधिमन:पर्ययज्ञानके बिना केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो सकती है )
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[ पंचाध्यायी भाग १ श्लोक ७०८ से ७१६ तक इस सूत्रकी चर्चा की गई है । देखो पं० देवकीनंदनजीकृत टीका पृष्ठ ३६३ से ३६८ ] यहाँ मति-श्रु तज्ञानको परोक्ष' कहा है तत्सम्बन्धी विशेष स्पष्टीकरण अवग्रह, ईहां, अवीय और धारणारूप मतिज्ञानको 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' भी कहा गया है । लोग कहते है कि 'मैंने घडेके रूपको प्रत्यक्ष देखा है' इसलिये वह ज्ञाने सॉव्यवहारिक प्रत्यक्ष है ।
श्रुतज्ञानके तीन प्रकार हो जाते है - (१) - सपूर्णं परोक्ष, (२) श्राशिक परोक्ष, (३) परोक्ष बिलकुल नही किंतु प्रत्यक्ष ।
(१) शब्दरूप जो श्रुतज्ञान है सो परोक्ष ही है । तथा दूरभूत स्वर्गनरकादि बाह्य विषयोंका ज्ञान करानेवाला विकल्परूप ज्ञान भी परोक्ष ही है ।
(२) आभ्यंतर में सुख-दुःखके विकल्परूपजो ज्ञान होता है वह, अथवा 'मै अनन्त ज्ञानादिरूप हूँ' ऐसा ज्ञान ईषत् ( किंचित्) परोक्ष है ।
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(३) निश्चयभाव श्रुतज्ञान शुद्धात्माके सम्मुख होनेसे सुख सवित्ति ( ज्ञान ) स्वरूप है । यद्यपि वह ज्ञान निजको जानता है तथापि इन्द्रियो तथा मनसे उत्पन्न होनेवाले विकल्पोके समूहसे रहित होनेसे निर्विकल्प है । ( अभेदनयसे ) उसे 'आत्मज्ञान' शब्दसे पहचाना जाता है । यद्यपि वह केवलज्ञानकी अपेक्षासे परोक्ष है तथापि छद्मस्थोके क्षायिक ज्ञानकी प्राप्ति न होनेसे, क्षायोपशमिक होनेपर भी उसे 'प्रत्यक्ष' कहा जाता है ।
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