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भध्याय ५ सूत्र १७
४०६ बतलाते है । उपकार, सहायकता या उपग्रहका अर्थ ऐसा नहीं होता कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका भला करता है, क्योकि २० वें सूत्र में यह बताया है कि जीवको दुःख और मरण होने में पुद्गल द्रव्यका उपकार है, यहां ऐसा समझना चाहिये कि लोक व्यवहारमें जब किसीके द्वारा किसीको कोई सुविधा दी जाती है तव व्यवहार भाषामे यह कहा जाता है कि एक जीवने दूसरेका उपकार किया-भला किया। किंतु यह मात्र निमित्त सूचक भाषा है । एक द्रव्य न तो अपने गुण पर्यायको छोड़ सकता है और न दूसरे द्रव्यको दे सकता है। प्रत्येकके प्रदेश दूसरे द्रव्योके प्रदेशोसे अत्यन्त भिन्न है, परमार्थसे-निश्चयसे एक दूसरेके क्षेत्रमे प्रवेश नही कर सकते, एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमे त्रिकाल प्रभाव है, इसलिये कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यका वास्तवमै लाभ या हानि नही कर सकता । एक द्रव्यको अपने कारणसे लाभ या हानि हुई तव उस समय दूसरे कौन द्रव्य निमित्तरूपमे मौजूद हुए, यह बतलानेके लिए १७ से २२ वे तकके सूत्रोंमें 'उपकार' शब्दका प्रयोग किया है (इस सम्बन्धमे प्रथम अध्यायके १४ वें सूत्रको जो टीका दी गई है वह तथा इस अध्यायके २२ वें सूत्रकी टीका यहाँ देखना चाहिए।
(२) यह सूत्र धर्म और अधर्म द्रव्यका लक्षण बतलाता है।
(३) उपग्रह, निमित्त, अपेक्षा, कारण हेतु ये सभी निमित्त बताने के लिये प्रयोग किये जाते हैं । "उपकार शब्दका अर्थ भला करना नही लेना कछु कार्य को निमित्त होय तिसको उपकारो कहिये है" अर्थात् किसी कार्यमें जो निमित्त हो उसे उपकार कहते है ।
(देखो पं० जयचन्दजीकृत सर्वार्थसिद्धि वचनिका पृष्ठ ४३४ अर्थप्रकाशिका सूत्र १६ की टीका प्रथमावृत्ति पृष्ठ ३०६ और सूरतसे प्रकाशित द्वितीयावृत्ति पृष्ठ २०२)
(४) प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्य किसीके देखने में नहीं पाते, इसलिये वे है ही नही ?
उचर-सर्वज्ञ वीतरागने प्रत्यक्ष देखकर कहा है इसलिये यह कहना ठीक नही है कि धर्म और अधर्म द्रव्य किसीको दिखाई नहीं देते। जो नेत्रसे न देखा जाय उसका प्रभाव बतलाना ठीक नहीं है। जो इन्द्रि
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