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अध्याय २ सूत्र ४६-४७-४८
वैक्रियिक शरीरका लक्षण औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥४६॥ अर्थ-[प्रौपपादिकम्] उपपाद जन्मवाले अर्थात् देव और नारकियोंके शरीर [वैक्रियिकं ] वैक्रियिक होते हैं। ___ नोट-उपपाद जन्मका विषय ३४ वे सूत्र में और क्रियिक शरीरका विषय ३६ वें सूत्रमें आ चुका है, उन सूत्रोको और उनकी टीकाको यहाँ भी पढ लेना चाहिए । देव और नारकियोंके अतिरिक्त दूसरोंके वैक्नियिक शरीर
होता है या नहीं ?
लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ अर्थ-वैक्रियिकशरीर [लब्धिप्रत्ययं च] लब्धिनैमित्तिक भी होता है। ...
टीका . वैक्रियिक शरीरके उत्पन्न होनेमें ऋद्धिका निमित्त है, सावुको तपको विशेषतासे प्राप्त होनेवाली ऋद्धिको 'लब्धि' कहा जाता है । प्रत्ययका अर्थ निमित्त है । किसी तिर्यंचको भी विक्रिया होती है । विक्रिया शुभभावका फल है, धर्मका नही । धर्मका फल तो शुद्ध असगभाव है और शुभभावका फल बाह्य संयोग है । मनुष्य तथा तियंचोका वैक्रियिक शरीर देव तथा नारकियोंके शरीरसे भिन्न जातिका होता है, वह औदारिक शरीरका ही एक प्रकार है॥४७॥ [देखो सूत्र ३६ तथा ४३ की टीका ] क्रियिकके अतिरिक्त किसी अन्य शरीरको भी लब्धिका निमित्त है ?
तैजसमपि ॥४८॥ अर्थ-[ तैजसम् ] तेजसशरीर [ अपि ] भी लब्धिनिमित्तक है।
टीका . " १-तेजसशरीरके दो भेद हैं-अनिःसरण और निःसरण । अनि:सरण सर्व संसारी जीवोके शरीरकी दीप्तिका कारण है, वह लब्धिप्रत्यय -नही है । उसका स्वरूप सूत्र ३६ की टीकामे पा चुका है।