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मोक्षशास्त्र ४. जीवकी अपनी पात्रता-योग्यता (-उपादान) के अनुसार बाह्य निमित्त संयोगरूप ( उपस्थितरूप ) होते हैं, और जव अपनी पात्रता नहीं. होती तब वे उपस्थित नहीं होते, यह बात इस सूत्रमें बतलाई गई है। जब जीव शब्दादिकका ज्ञान करने योग्य नहीं होता तब जड़ शरीररूप इन्द्रियाँ उपस्थित नही होती, और जब जीव वह ज्ञान करने योग्य होता है तब जड़ शरीररूप इन्द्रियाँ स्वयं उपस्थित होती है ऐसा समझना चाहिये।
५. पच्चीसवाँ सूत्र और यह सूत्र बतलाता है कि-परवस्तु जीवको विकारभाव नही कराती, क्योंकि विग्रहगतिमे स्थूल शरीर, खी, पुत्र इत्यादि कोई नहीं होते, द्रव्यकर्म जड़ हैं उनके ज्ञान नही होता, और व अपना-स्वक्षेत्र छोड़कर जीवके क्षेत्र में नहीं जा सकते इसलिये वे कर्म जीव में विकारभाव नहीं करा सकते । जब जीव अपने दोषसे अज्ञानदशामें प्रतिक्षण नया विकारभाव किया करता है तब जो कर्म अलग होते है उनपर उदयका आरोप होता है, और जीव जब विकारभाव नहीं करता तब पृथक् होनेवाले कर्मोपर निर्जरा का आरोप होता है अर्थात् उसे 'निर्जरा' नाम दिया जाता है । ४४ ॥
औदारिक शरीर का लक्षण गर्भसम्मूच्र्छनजमाद्यम् ॥ ४५ ॥ अर्थ- [ गर्भ ] गर्भ [ सम्मूर्च्छनजम् ] और सम्मूर्च्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाला शरीर [ प्राधं ] पहिला-प्रौदारिक शरीर कहलाता
टीका प्रश्न-शरीर तो जड़ पुद्गल द्रव्य है और यह जीवका अधिकार है फिर भी उसमें यह विषय क्यों लिया गया है ?
उत्तर-जीवके भिन्न भिन्न प्रकारके विकारीभाव होते हैं तब उसका किस किस प्रकारके शरीरोंके साथ एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होता है, यह बतानेके लिये शरीरोका विषय यहाँ ( इस सूत्रमें तथा इस अध्याय के अन्य कई सूत्रोमें ) लिया गया है ॥ ४५ ॥