________________
२२८
मोक्षशास्त्र -
टीका
जीव जब ये केवलज्ञानादिभाव प्रगट करता है तब 'द्रव्यकर्म स्वयं आत्मप्रदेशोंसे अत्यन्त वियोगरूप हो जाते हैं अर्थात् कर्म क्षयको प्राप्त होते है इसलिये इन भावोंको 'क्षायिकभाव' कहा जाता है ।
( १ ) केवलज्ञान – सम्पूर्ण ज्ञानका प्रगट होना केवलज्ञान है, तब ज्ञानावरणीय कर्मकी अवस्था क्षयरूप स्वयं होती है ।
( २ ) केवलदर्शन - सम्पूर्ण दर्शनका प्रगट - होना केवलदर्शन है, इस समय दर्शनावरणीय कर्मका स्वयं क्षय होता है । '
क्षायिक दानादि पाँच भाव - इसप्रकार अपने गुणकी निर्मल पर्याय अपने लिये दानादि पांच भावरूपसें - सपूर्णतया प्रगटता होती है, उस समय दार्नातराय इत्यादि पाँच प्रकारके अन्तरायकर्मका स्वयं क्षय होता है ।
( ३ ) क्षायिकदान - श्रपने शुद्ध स्वरूपका अपनेको दान देना सो उपादानरूप निश्चय क्षायिकदान है और अनंत जीवोंको शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति में जो निमित्तपनाकी योग्यता सो व्यवहार क्षायिक अभयदान है ।
(४) क्षायिकलाभ – अपने शुद्धस्वरूपका अपनेको लाभ होना सोनिश्चय क्षायिक लाभ है उपादान है और निमित्तरूपसे शरीरके बलको स्थिर रखनेमे कारणरूप अन्य मनुष्यको न हों ऐसे अत्यन्त शुभ सूक्ष्म नोकर्मरूप परिणमित होनेवाले अनन्त पुद्गल परमाणुत्रोंका प्रतिसमय सम्बन्ध होना क्षायिकलाभ है ।
(५) क्षायिक भोग —— अपने शुद्धस्वरूपका भोग क्षायिक भोग है और निमित्तरूपसे पुष्पवृष्टि आदिक विशेषोंका प्रगट होना क्षायिक भोग है । (६) क्षायिक उपभोग — अपने शुद्धस्वरूपका प्रतिसमय, उपभोग होना सो क्षायिक उपभोग है, और निमित्तरूपसे छत्र, चमर, सिंहासनादि विभूतियोंका होना क्षायिक उपभोग है ।
"
(७) क्षायिक वीर्य — अपने शुद्धात्म स्वरूपमें उत्कृष्ट सामर्थ्यरूपसे. प्रवृत्तिका होना सो क्षायिक वीर्य है ।