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अध्याय- २ सूत्र ५
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(८) क्षायिकसम्यक्त्व - अपने मूलस्वरूपकी दृढतम प्रतीतिरूप पर्याय क्षायिक सम्यक्त्व है; जब वह प्रगट होती है तब मिथ्यात्वकी तीन और अनंतानुबंध की चार, इसप्रकार कुल सात कर्म प्रकृतियोंका स्वयं क्षय होता है ।
(९) क्षायिकचारित्र — अपने स्वरूपका पूर्ण चारित्र प्रगट होना सो क्षायिकचारित्र है । उस समय मोहनीय कर्मकी शेष २१ प्रकृतियोंका क्षय होता है । इस प्रकार जब कर्मका स्वयं क्षय होता है तब मात्र उपचारसे यह कहा जाता है कि 'जीवने कर्मका क्षय किया है' परमार्थसे तो जीवने अपनी अवस्थामें पुरुषार्थ किया है, जड़ प्रकृतिमें नही ।
इन नव क्षायिकभावोको नव लब्धि भी कहते हैं ॥४॥ क्षायोपशमिकभावके १८ भेद ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥५॥
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अर्थ – [ ज्ञान प्रज्ञान ] मति, श्र ुत, अवधि और मनःपर्यंय यह चार ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुप्रवधि ये तीन अज्ञान [ दर्शन ] चक्षु, श्रचक्षु और अवधि ये तीन दर्शन [ लब्धयः ] क्षायोपशमिकदान, लाभ, भोग, उपभोग, वीयं ये पांच लब्धियां [ चतुः त्रि त्रि भेदाः ] इस प्रकार ४+३+३+५ = (.१५) भेद तथा [ सम्यक्त्व ] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व [ चारित्र ] क्षायोपशमिक चारित्र [च] और [संयमासंयमाः ] संयमासंयम इस प्रकार क्षायोपशमिकभावके १८ भेद है ।
टीका
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्वकी तथा अनंतानुबंधीकी कर्म प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय तथा उपशमकी अपेक्षासे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व' कहलाता है और सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयकी अपेक्षासे उसीको वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है ।