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मोक्षशास्त्र क्षायोपशमिक चारित्र-सम्यग्दर्शन पूर्वक-चारित्रके समय जो राग है उसकी अपेक्षासे वह सराग चारित्र कहलाता है किंतु उसमें जो राग है वह चारित्र नही है, जितना वीतरागभाव है उतना ही चारित्र है । इस चारित्रको क्षायोपशमिक चारित्र कहते है ।
संयमासंयम-इस भावको देशवत, अथवा विरताविरत चारित्र भी कहते हैं।
मतिज्ञान इत्यादिका स्वरूप पहिले अध्यायमें कहा जा चुका है ।
दान, लाभ इत्यादि लब्धिका स्वरूप ऊपरके सूत्रमें कहा गया है । वहाँ क्षायिकभावसे वह लब्धि थी और यहाँ वह लब्धि क्षायोपशमिकभावसे है ऐसा समझना चाहिए ॥ ५ ॥
औदायिकभावके २१ भेद गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्या
श्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः ॥६॥
अर्थ-[गति ] तिर्यंच, नरक, मनुष्य और देव यह चार गतियाँ [ कषाय ] क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार कषायें [ लिग ] स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद, यह तीन लिंग [ मिथ्यादर्शन ] मिथ्यादर्शन [अज्ञान ] अज्ञान [ असंयत ] असंयम [ प्रसिद्ध ] असिद्धत्व तथा [लेश्याः ] कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल यह छह लेश्याएँ इसप्रकार [चतुः चतुः त्रि एक एक एक एफ षड्भेदाः] ४+४+३+ १+१+१+१+ ६ ( २१ ) इसप्रकार सब मिलाकर औदयिकभावके २१ भेद है।
टीका प्रश्न-गति अघातिकर्मके उदयसे होती है, जीवके अनुजोवीगुणके घातका वह निमित्त नहीं है तथापि उसे औदयिकभावमें क्यों गिना है ?
उत्तर-जीवके जिस प्रकारकी गतिका संयोग होता है उसी में वह