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अध्याय २ सूत्र ६ ममत्व करने लगता है, जैसे वह यह मानता है कि 'मैं मनुष्य हूँ, मैं पशु हैं, मैं देव हूँ, मैं नारकी हूँ' । इसप्रकार जहाँ मोहभाव होता है वहाँ वर्तमान गतिमें जीव अपनेपनकी कल्पना करता है, इसलिये तथा चारित्र मोहकी अपेक्षासे गतिको औदयिक भावमें गिन लिया गया है। [ सिर्फ गति को उदय भाव में लिया जाय तो १४ गुणस्थान तक है]
लेश्या-कषायसे अनुरंजित योग को लेश्या कहते हैं । लेश्याके दो प्रकार हैं-द्रव्यलेश्या तथा भावलेश्या । यहाँ भावलेश्याका विषय है। भावलेश्या छह प्रकारकी है । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि लेश्याके समय आत्मामें उस उस प्रकारका रंग होता है किंतु जीवके विकारी कार्य भावापेक्षासे ६ प्रकारके होते हैं, उस भावमें विकारका तारतम्य बतानेके लिये ६ प्रकार कहे हैं । लोकमें यदि कोई व्यक्ति खराब काम करता है तो कहा जाता है कि इसने काला काम किया है, वहां उसके कामका रग काला नही होता किंतु उस काममे उसका तीव्र बुरा भाव होनेसे उसे काला कहा जाता है, और इस भावापेक्षासे उसे कृष्णलेश्या कहते हैं। जैसे जैसे विकार की तीव्रतामें हलकापन होता है उसीप्रकार भावको 'नील लेश्या' इत्यादि नाम दिये जाते हैं । शुक्ललेश्या भी शुभ औदयिकभावमें होती है। शुक्ललेश्या कहीं धर्म नही है क्योंकि वह मिथ्यादृष्टियोंके भी होती है । पुण्यके तारतम्य में जब उच्च पुण्यभाव होता है तब शुक्ललेश्या होती है। वह औदयिकभाव है और इसलिये वह संसारका कारण है, धर्मका नहीं।
प्रश्न-भगवानको तेरहवें गुणस्थानमें कषाय नहीं होती फिर भी उनके शुक्ललेश्या क्यों कही है ?
उचर-भगवानके शुक्ललेश्या उपचारसे कही है । पहिले योगके साथ लेश्याका सहकारित्व था, वह योग तेरहवें गुणस्थानमें विद्यमान होनेसे वहाँ उपचारसे लेश्या भी कह दी गई है। लेश्याका कार्य कर्मबंध है। भगवान के कषाय नही है फिर भी योगके होनेसे एक समयका बंध है यह अपेक्षा लक्षमें रखकर उपचारसे शुक्ललेश्या कही गई है।
.. अज्ञान-ज्ञानका अभाव अज्ञान है, इस अर्थमे यहाँ ज्ञान लिया