________________
अध्याय ६ सूत्र १३
५१७. दूसरे ज्ञेयकी तरफ नहीं लगाना पड़ता, केवली. भगवानके केवलदर्शन और केवलज्ञान एक साथ ही होते हैं। फिर भी ऐसा मानना-सो-मिथ्या मान्यता है कि "केवली भगवानके तथा सिद्ध भगवानके जिस समय ज्ञानोपयोग होता तब दर्शनोपयोग नही होता और जब दर्शनोपयोग होता. है। तब ज्ञानोपयोग नहीं होता।" ऐसा मानना कि "केवली- भगवानको तथा. सिद्ध भगवानको केवलज्ञान प्रगट होनेके बाद-जो अनन्तकाल है-उसके अर्धकालमें ज्ञानके कार्य बिना और अर्द्धकालदर्शनके कार्य, बिना व्यतीत करना पड़ता है" ठीक है. क्या ? नहीं, यह मान्यता भी न्याय विरुद्ध ही है, इसलिये ऐसी खोटी (-मिथ्या) मान्यता रखना सो अपने आत्माके शुद्ध स्वरूप का और उपचार.से.अनन्त केवली भगवानोंका अवर्णवाद है।
(५) चतुर्थ गुणस्थान-(सम्यग्दर्शन ) साथ ले जाने वाला आत्मा पुरुषपर्यायमें ही जन्मता.है खो रूपमें कभी भी पैदा नहीं होता; इसीलिये खो रूपसे कोई तीर्थंकर नही हो सकता, क्योंकि तीर्थकर होने वाला आत्मा सम्यग्दर्शन सहित ही जन्मता है और इसीलिये वह पुरुष ही होता है । यदि ऐसा माने कि किसी कालमें एक षी तीर्थंकर हो तो भूत और भविष्यकी अपेक्षासे (-चाहे जितने लम्बे समयमें हो तथापि ) अनंत खियाँ तीर्थकर हों और इसी कारण यह सिद्धांत भी टूट जायगा कि सम्यग्दर्शन सहित प्रात्मा स्त्री रूपमें पैदा नही होता; इसलिये स्त्री को तीर्थंकर मानना सो मिथ्या मान्यता है और ऐसा मानने वाले ने आत्मा की शुद्ध दशाका स्वरूप नही जाना । वह यथार्थमें अपने शुद्ध स्वरूप का पौर उपचारसे अनन्त केवलो भगवानोंका अवर्णवाद है।
(६ ) किसी भी कर्मभूमिकी स्त्रीके प्रथमके तीन उत्तम संहननका उदय ही नही होता,जब जीवके केवलज्ञान हो तब पहला ही संहनन होता है ऐसा केवलज्ञान और पहले संहननके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है । स्त्री के पांचवें गुरणस्थानसे ऊपरको अवस्था प्रगट नहीं होती, तथापि ऐसा मानना कि वीके शरीरवाच जोवको उसी भवमे केवलज्ञान होता है सो अपने शुद्ध
* देखो गोमट्टसार कर्मकाड गाथा ३२ ।
-