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मोक्षशास्त्र स्वरूपका अवर्णवाद है और उपचारसे अनंत केवली भगवानोंका तथा साधु संघका अवर्णवाद है।
(७) भगवानकी दिव्यध्वनि को देव, मनुप्य, तियंच-सवं जीव अपनी अपनी भाषामें अपने ज्ञानकी योग्यतानुसार समझते हैं। उस निरदार ध्वनिको ॐकार ध्वनि भी कहा है। श्रीनाओंके कणं प्रदेशतक यह ध्वनि न पहुँचे वहाँ तक वह अनक्षर ही है, और जब वह श्रोताग्रो के काम प्राप्त हो तव अक्षररूप होती है। (गो० जी० गा० २२७ टीका )
___ तालु, प्रोष्ठ आदिके द्वारा केवली भगवानको वाणी नहीं खिरती किन्तु सर्वाग निरक्षरी वाणी खिरती है। इससे विरुद्ध मानना सो मात्माके शुद्धस्वरूपका और उपचारसे केवली भगवानका अवर्णवाद है।
(5) सातवें गुणस्थानसे वंद्य वन्दकभाव नहीं होता, इसलिये वहाँ व्यवहार विनय-वैयावृत्य आदि नहीं होते। ऐसा मानना कि केवली किसी का विनय करे या कोई जीव केवलज्ञान होनेके बाद गृहस्थ-कुटुम्बियोंके साथ रहे या गृह कार्य में भाग लेता है-सो तो वीतरांगको सरागी माना, और ऐसा मानना न्याय विरुद्ध है कि किसी भी द्रव्यस्त्रीके केवलज्ञान उत्पन्न होता है । 'कर्मभूमिकी महिला के प्रथम तीन संहनन होते ही नहीं और चौथा संहनन हो तव वह जीव ज्यादासे ज्यादा सोलहवें स्वर्ग तक जा सकता है' ( देखो गोमट्टसार कर्मकाड गाथा २६-३२) इससे विरुद्ध मानना सो आत्माके शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनन्तकेवली भगवान का अवर्णवाद है।
(8) कुछ लोगोंका ऐसा मानना है कि प्रात्मा सर्वज्ञ नहीं हो सकता सो यह मान्यता भूलसे भरी हुई है । आत्माका स्वरूप ही ज्ञान है, ज्ञान क्या नही जानता ? ज्ञान सबको जानता है ऐसी उसमे शक्ति है। और वीतराग विज्ञानके द्वारा वह शक्ति प्रगट कर सकता है । पुनश्च कोई ऐसा मानते है कि केवलज्ञानी आत्मा सर्वद्रव्य, उसके अनन्तगुण और उसकी अनंतपर्यायों को एक साथ जानता है तथापि उसमेसे कुछ जाननेमें नही आताजैसे कि एक बच्चा दूसरेसे कितना बड़ा, कितने हाथ लम्बा, एक घर दूसरे