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मोक्षशास्त्र दवा लानेके लिये किसी शिष्यको कहना ये सब दुःखका अस्तित्व सूचित करता है, अनन्तसुखके स्वामी केवली भगवानके प्राकुलता, विकल्प, लोभ, इच्छा या दुःख होनेकी कल्पना करना अर्थात् केवली भगवानको सामान्य छद्मस्थकी तरह मानना न्याय विरुद्ध है । यदि आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को समझे तो आत्माकी समस्त दशाओंका स्वरूप ध्यानमें आं जाय । भगवान छद्मस्थ मुनिदशामें करपात्र (हाथमें भोजन करनेवाले होते हैं और आहारके लिये स्वयं जाते हैं किन्तु यह अशक्य है कि केवलज्ञान होनेके बाद रोग हो, दवाकी इच्छा उत्पन्न हो और वह लानेके लिये शिष्यको आदेश दें। केवलज्ञान होने पर शरीरकी दशा उत्तम होती है और शरीर परम औदारिक रूपमे परिणमित हो जाता है। उस शरीरमें रोग होता ही नहीं। यह अबाधित सिद्धान्त है कि 'जहाँ तक राग हो वहाँ तक रोग हो, परन्तु भगवानको राग नहीं है इसी कारण उनके शरीरके रोग भी कभी होता ही नही । इसलिये इससे विरुद्ध मानना सो अपने आत्मस्वरूपका और उपचारसे अनन्त केवलीभगवन्तोंका अवर्णवाद है।
.. (३). किसी भी जीवके गृहस्थ दशामें केवलज्ञान प्रगट होता हैं ऐसा मानना सो बड़ी भूल है । गृहस्थ दशा छोड़े बिना भावसांधुत्व आ ही नहीं सकता, भावसाधुत्व हुए बिना भी केवलज्ञान कैसे प्रगट हो सकता है ? भावसाधुत्व छ? सातवें गुणस्थानमें होता है और केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थानमें होता है इसलिये गृहस्थदशामें कभी भी किसी जीवके केवलज्ञान नहीं होता। इससे विरुद्ध जो मान्यता हैं सो अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनन्तं केवली भगवानोंका अवर्णवाद है।
(४) छद्मस्थ जीवोंके जो ज्ञान-दर्शन उपयोग होता है वह ज्ञेय सन्मुख होनेसे होता है, इस देशामें एक ज्ञेयसे हटकर दूसरे ज्ञेयकी तरफ प्रवृत्ति करता है, ऐसी प्रवृत्ति बिना छद्मस्थ जीवका ज्ञान प्रवृत्त नही होता; इसीसे पहले चार ज्ञान पर्यंतके कथनमे उपयोग शब्दका प्रयोग उसके अर्थ के अनुसार (-'उपयोग' के अन्वयार्थके अनुसार ) कहा जा सकता है। परंतु केवलज्ञान और केवलदर्शन तो अखण्ड अविच्छिन्न है; उसको ज्ञेय सन्मुख नही होना पड़ता अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शनको एक ज्ञेयसे हटकर