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अध्याय ६ सूत्र १३
५१५ मौके स्वरूप हैं। अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और मुनि ये पांचों पद निश्वयसे.आत्मा ही हैं (देखो योगीन्द्रदेवकृत योगसार गाथा १०४, परमात्मप्रकाश-पृष्ठ ३९३, ३६४ ) इसीलिये उनका स्वरूप समझने में यदि भूल हो और वह उनमें न हो ऐसा दोष कल्पित किया जाय तो आत्माका स्वरूप न समझे और मिथ्यात्वभावका पोषण हो। धर्म आत्माका स्वभाव है इसलिये धर्म सम्बन्धी झूठी. दोष कल्पना करना सो भी महान दोष है।
...२-श्रुतका अर्थ है शास्त्र, वह जिज्ञासु जीवोंके आत्माका स्वरूप समझने में निमित्त है, इसीलिये मुमुक्षुओंको सच्चे शास्त्रोंके स्वरूपका भी निर्णय करना चाहिये।
३-केवली भगवानके अवर्णवादका स्वरूप 7 (१) भूख और प्यास यह पीड़ा है, उस पीड़ासे दुःखी हुए जीव ही आहार लेनेकी इच्छा करते हैं। भूख और प्यासके कारण दुःखका अनुभव होना सो आर्तध्यान है। केवली भगवानके सम्पूर्ण ज्ञान और अनन्त सुख होता है तथा उनके परम शुक्लध्यान रहता है। इच्छा तो वर्तमानमे रहनेवाली दशाके प्रति द्वेष और परवस्तुके प्रति रागका अस्तित्व सूचित करती है, केवली भगवानके इच्छा ही नही होती, तथापि ऐसा मानना कि केवली भगवान अन्नका आहार ( कवलाहार ) करते हैं यह न्याय विरुद्ध है। केवली भगवानके सम्पूर्ण वीर्य प्रगट हुमा होनेसे उनके भूख और प्यास की पीड़ा ही नही होती, और अनन्त सुख प्रगट होनेसे इच्छा ही नही होती। और बिना इच्छा कवल आहार कैसा? जो इच्छा है सो दुःख है-लोभ है इसलिये केवली भगवानमे आहार लेनेका दोष कल्पित करना सो केवलीका और अपने शुद्ध स्वरूपका अवर्णवाद है । यह दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रवका कारण है अर्थात् यह अनन्त संसारका कारण है।
(२) आत्माको वीतरागता और केवलज्ञान प्रगट होनेके बाद शरीरमे शौच या दूसरा कोई दर्द (रोग) हो और उसकी दवा लेने या दवा लानेके लिये किसीको कहना यह अशक्य है दवा लेनेकी इच्छा होना और
* तीर्थङ्कर भगवानके जन्मसे ही मलमूत्र नही होता और समस्त केवली भगवानोके केवलज्ञान होनेके बाद रोग, आहार-निहारमादि नहीं होता।