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अध्याय २ सूत्र ४०-४१
२७५ मनुष्यलोक ( अढाई द्वीप ) तक जाता है उससे अधिक नहीं जा सकता ।। ४० ॥
तैजस और कार्मण शरीरकी अन्य विशेषता
अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ अर्थ-[च ] और यह दोनों शरीर [ अनादिसम्बन्धे ] आत्माके साथ अनादिकालसे सम्बन्धवाले हैं।
टीका १. यह कथन सामान्य तैजस और कार्मणशरीरकी अपेक्षासे है। विशेष अपेक्षासे इसप्रकारके पहिले पहिले शरीरोंका सम्बन्ध छूटकर नये नये शरीरोके सम्बन्ध होता रहता है, अर्थात् अयोगी गुणस्थानसे पहिलेप्रति समय जीव इस तैजस और कार्मण शरीरके नये नये रजकणोको ग्रहण करता है और पुरानेको छोड़ता है। ( १४ वा गुणस्थानके अन्तिम समय इन दोनों का अभाव हो जाता है उसी समय जीव सीधी श्रेणीसे सिद्धस्थानमें पहुँच जाता है ) सूत्रमे 'च' शब्द दिया है उससे यह अर्थ निकलता है।
२. जीवके इन शरीरोंका संबंध प्रवाहरूपसे अनादि नही है परन्तु नया (सादि ) है ऐसा मानना गलत है, क्योकि जो ऐसा होता तो पहिले जीव अशरीरी था अर्थात् शुद्ध था और पीछे वह अशुद्ध हुआ ऐसा सिद्ध होगा; परन्तु शुद्ध जीवके अनन्त पुरुषार्थ होनेसे उसके अशुद्धता आ नही सकती और जहाँ अशुद्धता नहीं होती है वहाँ ये शरीर हो ही नही सकते । इसप्रकार जीवके इन शरीरोका सम्बन्ध सामान्य अपेक्षासे (-प्रवाहरूपसे) अनादिसे है। और यदि इन तैजस और कार्मण शरीरोंका सम्बन्ध अनादिसे प्रवाहरूप नही मानकर वहीका वही अनादिसे जीवसे सम्बन्धित है ऐसा माना जाय तो उनका सम्बन्ध अनन्तकाल तक रहेगा और तब जीवके विकार न करने पर भी उसे मोक्ष कभी भी नहीं होगा। अवस्थादृष्टिसे जीव अनादिकालसे अशुद्ध है ऐसा इस सूत्रसे सिद्ध होता है। ( देखो इसके बादके सूत्रकी टीका )