________________
२७६
मोक्षशास्त्र
ये शरीर अनादिकालसे सब जीवोंके होते हैं सर्वस्य ॥ ४२ ॥
अर्थ-ये तैजस और कार्मण शरीर [ सर्वस्य ] सब संसारी जीवोंके होते हैं ।
टीका
जिन जीवोंके इन शरीरोंका सम्बन्ध नहीं होता है उनके संसारी श्रवस्था नहीं होती है सिद्ध अवस्था होती है । यह बात ध्यानमें रखना चाहिए कि- किसी भी जीवके वास्तवमें ( परमार्थसे ) शरीर होता नहीं है । यदि जीवके वास्तव शरीर माना जाय तो जीव जड़ शरीररूप हो जायगा; परन्तु ऐसा होता नही है । जीव और शरीर दोनों एक आकाशक्षेत्र में ( एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धरूप ) रहते हैं इसलिये अज्ञानी जीव शरीरको अपना मानते हैं; अवस्था दृष्टिसे जीव श्रनादिकालसे अज्ञानी है इसलिये 'अज्ञानी के इस प्रतिभास' को व्यवहार बतलाकर उसे 'जीवका शरीर' कहा जाता है ।
इसप्रकार जीवके विकारीभावका और इस शरीरका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बताया है, किन्तु जीव और शरीर एक द्रव्यरूप, एक क्षेत्ररूप, एक पर्यायरूप या एक भावरूप हो जाते हैं - यह बतानेका शास्त्रोंका हेतु नहीं है; इसलिये आगे सूत्रमे 'सम्बन्ध' शब्दका प्रयोग किया है, यदि इसप्रकार ( - व्यवहार कथनानुसार ) जीव और शरीर एकरूप हो जाँय तो दोनों द्रव्योंका सर्वथा नाश हो जायगा ॥ ४२ ॥
एक जीवके एक साथ कितने शरीरोंका सम्बन्ध होता है ? तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥४३॥
अर्थ - [ तदादीनि ] उन तेजस और कार्मरण शरीरोंसे प्रारम्भ -करके -[ युगपत् ] एक साथ [ एकस्मिन् ] एक जीवके [ श्राचतुर्भ्यः ] चार शरीर तक [भाज्यानि ] विभक्त करना चाहिये अर्थात् जानना चाहिये ।
टीका
जीवके यदि दो शरीर हो तो तैजस और कार्मण, तीन हो तो