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मध्याय ७ सूत्र १५-१६ आने जानेके लिए खुला है । पुनश्च ,शेरी आदिमें प्रवेश करनेसे मुनिके प्रमत्तयोग नही होता ।
चाहे बाह्य वस्तुका ग्रहण हो या न भी हो तथापि चोरी करनेका जो भाव होता है वही चोरी है और वही बंधका कारण है । वास्तवमें परवस्तुको कोई ग्रहण कर ही नहीं सकता, किन्तु परवस्तुके ग्रहण करनेका जो प्रमादयुक्त भाव है वही दोष है ॥ १५ ॥
कुशील (अब्रह्मचर्य ) का स्वरूप
मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ अर्थ-[ मैथुनमब्रह्म जो मैथुन है सो अब्रह्म अर्थात् कुशील है।
टीका १. मैथुन-चारित्र मोहनीयके उदयमे युक्त होनेसे राग-परिणाम सहित स्त्री-पुरुषोंकी जो परस्परमे स्पर्श करनेकी इच्छा है सो मैथुन है।' ( यह व्याख्या व्यवहार मैथुनकी है)
मैथुन दो प्रकारका है-निश्चय और व्यवहार । आत्मा स्वयं ब्रह्म. स्वरूप है। आत्माको अपने ब्रह्मस्वरूपमें जो लीनता है सो वास्तवमे ब्रह्म
चर्य है और पर निमित्तसे-रागसे लाभ माननेरूप सयोगबुद्धि या कषायके साथ एकत्वकी बुद्धि होना सो अब्रह्मचर्य है यही निश्चय मैथुन है। व्यवहार मैथुन की व्याख्या ऊपर दी गई है।
२-तेरहवे सूत्रमे, कहे हुए 'प्रमत्त योगात्' शब्दकी अनुवृत्ति इस सूत्रमे भी आती है, इसीलिये ऐसा समझना कि स्त्री पुरुषके युगल संबंधसे रतिसुखके लिये जो चेष्टा (-प्रमाद परिणति) की जाती है वह मैथुन है।
३-जिसके पालनसे अहिंसादिक गुण वृद्धिको प्राप्त हों वह ब्रह्म है और जो ब्रह्मसे विरुद्ध है सो अब्रह्म है । अब्रह्म (-मैथुन ) मे हिंसादिक दोष पुष्ट होते हैं, पुनश्च उसमें त्रस-स्थावर जीव भी नष्ट होते हैं, मिथ्यावचन बोले जाते हैं, विना दी हुई वस्तुका ग्रहण किया जाता है और चेतन तथा अचेतन परिग्रहका भी ग्रहण होता है-इसलिये यह अब्रह्म छोड़ने लायक है ॥ १६ ॥