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निरोध नही हो सकता," तथा गाथा १६६ में भी कहा है कि "व्यवहार मोक्षमार्ग वह सूक्ष्म परसमय है और वह बन्धका हेतु होनेसे उसका मोक्षमार्गपना निरस्त किया गया है। गाथा १५७ तथा उसकी टीकामें "शुभाशुभ परचारित्र है, बन्धमार्ग है मोक्षमार्ग नहीं है।"
(५) इस सम्बन्धमें खास लक्ष्यमें (-खयालमें ) रखने योग्य बात यह है कि पुरुषार्थ सिद्धि उपाय शास्त्रकी गाथा १११ का अर्थ बहुत समयसे कितेक द्वारा असंगत करने में आ रहा है, उसकी स्पष्टताके लिये देखो इस शाखके पत्र नं० ५५५-५६ ।
उपरोक्त सब कथनका अभिप्राय समझकर ऐसी श्रद्धा करना चाहिये कि-धर्मी जीव प्रथमसे ही शुभरागका भी निषेध करते है । अतः धर्म परिणत जीवका शुभोपयोग भी हेय है, त्याज्य है, निषेध्य है, कारण कि वह बन्धका ही कारण है । जो प्रथमसे ही ऐसी श्रद्धा नही करता उसे आस्रव और बन्ध तत्त्वकी सत्यश्रद्धा नही हो सकती, और ऐसे जीव आस्रव को संवररूप मानते हैं, शुभभावको हितकर मानते हैं इसलिये वे सभी झूठी श्रद्धावाले हैं। इस विषयमें विशेष समझनेके लिये देखो इस शासके पृष्ठ ५४७ से ५५६ । व्यवहार मोक्षमार्गसे लाभ नहीं है ऐसी श्रद्धा करने योग्य है
२१-कितेक लोग ऐसा मान रहे हैं कि शुभोपयोगसे अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्गसे आत्माको वास्तवमे लाभ होता है तो वह बात मिथ्या है कारण कि वे सब व्यवहार मोक्षमार्गको वास्तवमे बहिरंग निमित्त कारण नही मानते परन्तु उपादान कारण मानते हैं । देखो श्री रायचन्द ग्रन्थमालाके पचास्तिकाय गाथा ८६, मे जयसेनाचार्यकी टीका
वहाँ अधर्मास्तिकायका निमित्त कारणपना कैसे है यह बात सिद्ध करनेमे कहा है कि "शुद्धात्म स्वरूपे या स्थितिस्तस्य निश्चयेन वीतरागनिविक्ल्प स्वसंवेदन कारणं, व्यवहारेण पुनरर्हत्सिद्धादि परमेष्ठि गुणस्मरणं च यथा, तथा जीव पुद्गलानां निश्चयेन स्वकीय स्वरूपमेव स्थितरूपादान कारणं, व्यवहारेण पुनरधर्मद्रव्यं चेति सूत्रार्थः। अर्थ