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अथवा जैसे शुद्धात्म स्वरूपमें ठहरनेका कारण निश्चयनयसे वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान है तथा व्यवहार नयसे श्रहंत, सिद्धादि पंच परमेष्ठियोंका गुरणों का स्मरण है तैसे जीव पुद्गलोके ठहरनेमें निश्चयनयसे उनका ही स्वभाव ही उपादान कारण है, व्यवहारनयसे अधर्मं द्रव्य यह सूत्रका अर्थ है ।”
इस कथनसे सिद्ध होता है कि धर्म परिणत जीवको शुभोपयोगका निमित्तपना और गतिपूर्वक स्थिर होनेवालेको अधर्मास्तिका निमित्तपना समान है और इस कथनसे यह वात जानी जाती है कि निमित्तसे वास्तवमे लाभ ( हित ) माननेवाले — निमित्तको उपादान ही मानते है, व्यवहारको निश्चय ही मानते हैं अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग से वास्तवमे लाभ मानते हैं इसलिये वे सब मिथ्यादृष्टि है, श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३७८ मे भी ऐसा कहा है कि - "यहु जीव निश्वयाभासको माने जाते है । परन्तु व्यवहार साधन कौं भला जानैं है, ... व्रतादिरूप शुभोपयोगरूप प्रवर्त है ताते अन्तिम ग्रैवेयक पर्यंत पद को पावै है । परन्तु ससारका ही भोक्ता रहे है ।"
केवलज्ञान, क्रमबद्ध - क्रमवर्ती
२२ –—–— केवलज्ञान सबधी अनेक प्रकारकी विपरीत मान्यता चल रही है, अत उनका सच्चा स्वरूप क्या है वह इस शास्त्रमे पत्र २०० से २१४ तक दिया गया है उस मूल बातकी ओर आपका ध्यान खीचनेमे आता है । (१) केवली भगवान् आत्मज्ञ है, परज्ञ नही है ऐसी भी एक झूठी मान्यता चल रही है परन्तु श्री प्रवचनसार गाथा १३ से ५४ तक टीका सहित उनका स्पष्ट समाधान किया है, उनमे गाथा, ४८ मे कहा है कि "जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थोंको नही जानता, उसे पर्याय सहित एक द्रव्य भी जानना शक्य नही है," बादमें विस्तारसे टीका करके अन्तमे कहा है कि " इसप्रकार फलित होता है कि जो सबको नही जानता वह अपनेको ( आत्माको ) नही जानता ।" प्र० सार गाथा ४६ ( पाटनी ग्रन्थमाला ) मे भी बहुत स्पष्ट कहा है, गाथा पर टीकाके साथ जो कलश दिया है वह खास सूक्ष्मता से पढने योग्य है ।