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शुद्धोपयोग का फल केवलज्ञान है इसलिये केवलज्ञान प्रगट करनेके लिये शुद्धोपयोग अधिकार शुरू करते प्राचार्यदेवने प्रवचनसार गाथा १३ की भूमिकामें कहा है कि "इसप्रकार यह ( भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव) समस्त शुभाशुभोपयोगवृत्चिको अपास्तकर, ( हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके ) शुद्धोपयोगवृत्तिको आत्मसात् ( अपनेरूप ) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते है। उसमे ( पहले ) शुद्धोपयोगके फलकी प्रात्माके प्रोत्साहनके लिये प्रशंसा करते है" कारण कि शुद्धोपयोग का ही फल केवलज्ञान है।
उस केवलज्ञानके संबंधमे विस्तारसे स्पष्ट आधार द्वारा समझनेके लिये देखो इस शास्त्रके पत्र नं० २०० से २१४ तक ।
(२) प्रवचनसार गा. ४७ की टीकामें सर्वज्ञका ज्ञानके स्वभावका वर्णन करते २ कहा है कि "अतिविस्तारसे बस हो, जिसका अनिवारित फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होनेसे क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वको जानता है" इससे ही सिद्ध होते हैं कि सर्वज्ञेयोका सम्पूर्ण स्वरूप-प्रयेक समयमें केवलज्ञानके प्रति सुनिश्चित होनेसे अनादि अनन्त क्रमबद्ध-क्रमवति पर्याये केवलज्ञानीके ज्ञानमे स्पष्ट प्रतिभासित हैं और वे सुनिश्चित होनेसे सब द्रव्योंकी सब पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं, उल्टी-सीधी, अगम्य वा अनिश्चित होती ही नही ।
(३) पर्यायको क्रमवर्ती भी कहने में प्राता है उसका अर्थ श्री पंचास्तिकायकी गाथा १८ की टीकामे ऐसा किया है कि-"क्योंकि वे (पर्यायें) क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है
और बीत जाता है ।" बादमे गाथा २१ की टीकामे कहा है कि "जब जीव, द्रव्यको गौणतासे तथा पर्यायकी मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह (१) उपजता है, (२) विनष्ट होता है, (३) जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् (-विद्यमान) पर्याय समूहको विनष्ट करता है और (४) जिसका स्वकाल उपस्थित हुआ है (-आ पहुँचा है) ऐसे असत् को ( अविद्यमान पर्याय समूहको ) उत्पन्न करता है।