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मोक्षशास्त्र
टीका
१-आगे चीथे सूत्रमें यह कहेंगे कि सकषाययोग और प्रकषाययोग आस्रव अर्थात् आत्माका विकारभाव है ।
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२- कितने ही जीव कषायका अर्थ क्रोध - मान-माया - लोभ करते हैं किन्तु यह अर्थ पर्याप्त नही है । मोहके उदयमें युक्त होने पर जीवके मिथ्यात्व क्रोधादि भाव होता है सामान्यरूपसे उस सबका नाम 'कषाय' है | ( देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४० ) सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वभाव नही अर्थात् उसके जो क्रोधादि भाव हो सो कषाय है ।
३—— योगकी क्रिया नवीन कर्मके आस्रवका निमित्त कारण है । इस सूत्र कहे हुये 'आस्रव' शब्दमें द्रव्यास्रवका समावेश होता है । योगकी क्रिया तो निमित्त कारण है; इसमें पर द्रव्यके द्रव्यास्रव रूप कार्यका उपचार करके इस सूत्र में योगकी क्रियाको ही श्रस्रव कहा है ।
एक द्रव्यके कारणको दूसरे द्रव्यके कार्य में मिलाकर व्यवहारनयसे कथन किया जाता है । यह पद्धति यहाँ ग्रहण करके जीवके भावयोगकी क्रियारूप कारणको द्रव्यकर्मके कार्यमे मिलाकर इस सूत्रमें कथन किया है; ऐसे व्यवहार नयको इस शास्त्रमें नैगमनयसे कथन किया कहा जाता है; क्योंकि योगकी क्रियामें द्रव्यकर्मरूप कार्यका संकल्प किया गया है ।
४- प्रश्न - - आस्रवको जाननेकी आवश्यकता क्या है ?
उत्तर——दुःखका कारण क्या है यह जाने बिना दुःख दूर नहीं किया जा सकता; मिथ्यात्वादिक भाव स्वयं ही दुःखमय है, उसे जैसा है यदि वैसा न जाने तो जीव उसका अभाव भी न करेगा और इसीलिये जीवके दुःख ही रहेगा; इसलिये आस्रवको जानना आवश्यक है ।
( मो० प्र० पृ० ११२ ) ५ - प्रश्न — जीवकी आसव तत्त्वकी विपरीत श्रद्धा अनादिसे क्यों है ?
उत्तर - मिथ्यात्व और शुभाशुभ रागादिक प्रगटरूपसे दुःखके देने