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अध्याय ६ सूत्र १-२
४६१ भेद नहीं है, किन्तु एक ही प्रकार है। दूसरी तरहसे-योगके दो भेद किये जा सकते हैं-१-भाव योग और-२-द्रव्य योग । कर्म, नोकर्मके प्रहण करने में निमित्तरूप प्रात्माकी शक्ति विशेषको भावयोग कहते हैं और उस शक्तिके कारणसे जो मात्माके प्रदेशोंका सकंप होना सो द्रव्य योग है ( यहाँ 'द्रव्य' का अर्थ 'आत्म द्रव्यके प्रदेश' होता है )
२-यह आस्रव अधिकार है। जो योग है सो आस्रव है, ऐसा दूसरे सूत्रमे कहेगे। इस योगके दो प्रकार हैं-१-सकषाययोग और २ अकषाययोग। ( देखो सूत्र ४ था )
३-यद्यपि भावयोग एक ही प्रकारका है तो भी निमित्तकी अपेक्षा से उसके १५ भेद होते है; जब यह योग मनकी ओर झुकता है तब उसमें मन निमित्त होनेसे, योग और मनका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दर्शानेके लिये, उस योगको मनोयोग कहा जाता है। इसी प्रकारसे जब वचनकी
ओर झुकाव होता है तव वचनयोग कहा जाता है और जब कायकी ओर झुकाव होता है तब काययोग कहा जाता है। इसमे मनोयोगके ४, वचनयोगके ४ और काययोगके ७ भेद हैं। इस तरह निमित्तकी अपेक्षासे भावयोगके कुल १५ भेद होते हैं।
(जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न २२०, ४३२, ४३३) ४-आत्माके अनन्तगुणोंमें एक योग गुरण है; यह अनुजीवी गुण है। इस गुरगकी पर्यायमें दो भेद होते हैं १-परिस्पंदरूप अर्थात् प्रात्म प्रदेशोका कंपनरूप और २-आत्म प्रदेशोकी निश्चलतारूप-निष्कपरूप । प्रथम प्रकार योगगुणकी अशुद्ध पर्याय है और दूसरा भेद योगगुणकी शुद्ध पर्याय है। इस सूत्रमें योगगुणको कंपनरूप अशुद्ध पर्यायको 'योग' कहा है।
अब आस्रवका स्वरूप कहते हैं
स पासवः ॥२॥ अर्थ-[ सः ] वह योग [ मानवः ] आस्रव है।