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________________ ४६० मोक्षशास्त्र से अनेक क्रियायें होती हैं, उन सबको दो द्रव्योंके मिलापसे बनी हुई मानता है, किन्तु उसके ऐसा भिन्न भिन्न भाव नही भासता कि 'यह जीवकी क्रिया है और यह पुगलकी क्रिया है ।' ऐसा भिन्न भाव भासे विना उसको जीवअजीवका यथार्थ श्रद्धानी नही कहा जा सकता; क्योंकि जीव प्रजीवके जाननेका प्रयोजन तो यही था; जो कि इसे हुआ नहीं । ( देखो देहली सस्ती ग्रन्थमालाका मोक्षमार्ग प्रकाशक अ० ७ पृ० ३३१ ) (६) पहले अध्यायके ३२ वें सूत्रमें सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् कहा है वह समझकर विपरीत अभिप्राय रहित होकर सत् असतुका भेदज्ञान करना चाहिये जहाँतक ऐसी यथार्थ श्रद्धा न हो वहाँ तक जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता । उसमें 'सत्' शब्दसे यह समझने के लिये कहा है कि जीव स्वयं त्रिकाली शुद्ध चैतन्य स्वरूप क्यों है और 'असत्' शब्दसे यह बताया है कि जीवमे होनेवाला विकार जीवमें से दूर किया जा सकता है, इसलिये वह पर है । पर पदार्थ और श्रात्मा भिन्न होनेसे कोई परका कुछ कर नहीं सकता; श्रात्माकी अपेक्षासे पर पदार्थ असत् हैं -- नास्तिरूप हैं । जब ऐसा यथार्थ समझे तभी जीवके सत् असत् के विशेषका यथार्थ ज्ञान होता है । जीवके जहाँ तक ऐसा ज्ञान न हो वहाँ तक आस्रव दूर नहीं होता; जहाँतक जीव अपना और आस्रवका भेद नहीं जानता वहाँ तक उसके विकार दूर नही होता । इसीलिये यह भेद समझानेके लिये छट्ट े और सातवे अध्यायमें श्रास्रवका स्वरूप कहा है । यह आस्रव अधिकार है; इसमें प्रथम योगके भेद और उसका स्वरूप कहते हैं कायवाङ मनः कर्मयोगः ॥१॥ अर्थ:- [ कायवाङ्मनः कर्म ] शरीर, वचन और मनके अवलम्बनसे आत्मा के प्रदेशोंका सकंप होना सो [ योगः ] योग है । टीका १-आत्माके प्रदेशोंका सकंप होना सो योग है; सूत्रमें जो योगके तीन भेद कहे हैं वे निमित्तकी अपेक्षासे है । उपादान रूप योगमें तीन
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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