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मध्याय २ उपसंहार
२६३ सूा २१ से ५३-ससारी जीवोंके औदयिकभाव होने पर जो कर्म एक क्षेत्रावगाहरूपसे बंधते हैं उनके उदयका निमित्त-नैमित्तिक संबंधजीवके क्षायोपशमिक तथा औदयिकभावके साथ तथा मन, इन्द्रिय, शरीर, कर्म, नये भवके लिये क्षेत्रान्तर, आकाशकी श्रेणी, गति, नौ कर्मका समय समय ग्रहण, तथा उनका प्रभाव, जन्म, योनि, तथा आयुके साथ कैसा होता है यह बताया है। [ सूत्र २१ से २६ तथा २८ से'५३ ]
सिद्धदशाके होनेपर जीवका आकाशकी किसी श्रेणीके साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध है यह २७ वें सूत्र में बताया है [सूत्र २७]
इससे यह समझना चाहिये कि जीवको विकारी या अविकारी अवस्थामे जिन परवस्तुओंके साथ सबंध होता है उन्हे जगतकी अन्य परवस्तुओसे पृथक् समझनेके लिये उतने ही समयके लिये उन्हें 'निमित्त' नाम देकर संबोधित किया जाता है। किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि निमित्त की मुख्यतासे किसी भी समय कार्य होता है। इस अध्यायका २७ वाँ सूत्र इस सिद्धातको स्पष्टतया सिद्ध करता है । मुक्त जीव स्वयं लोकाकाशके अग्रभागमे जानेकी योग्यता रखते हैं और तब आकाशकी जिस श्रेणीमेसे वे जीव पार होते है उस श्रेणीको-आकाशके अन्य भागों से तथा जगतके दूसरे समस्त पदार्थोसे पृथक् करके पहिचाननेके लिये 'निमित्त' नाम (भारोपित करके ) दिया जाता है।
७. निमिच-नैमितिक सम्बन्ध यह सम्बन्ध २६-२७ वें सूत्रमे चमत्कारिक ढंगसे अत्यल्प शब्दोंमे कहा गया है। वह यहाँ बतलाया जाता है
१--जीवकी सिद्धावस्थाके प्रथम समयमें वह लोकके अग्रभागमें सीधी आकाश श्रेणीसे मोड़ा लिये बिना ही जाता है यह सूत्र २६-२७ मे प्रतिपादन किया गया है। जिस समय जीव लोकानमे जाता है उस समय वह जिस आकाश श्रेणीमेसे जाता है उसी क्षेत्रमे धर्मास्तिकायके और अधर्मास्तिकायके प्रदेश हैं, अनेक प्रकारकी पुद्गल वर्गणाए है, पृथक् परमाणु हैं, सूक्ष्म स्कंध है, कालाणुद्रव्य है, महास्कन्धके प्रदेश हैं, निगोदके जीवोके तथा उनके शरीरके प्रदेश हैं तथा लोकान्तमें (सिद्धशिलासे ऊपर)