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अध्याय ६ सूत्र २४
५३६ कल्याणक होते हैं। जिनके वर्तमान मनुष्य पर्यायके भवमें ही गृहस्थ अवस्थामें तीर्थंकर प्रकृति बँध जाती है उनके तप, ज्ञान और निर्वाण ये तीन कल्याणक होते हैं और जिनके वर्तमान मनुष्य पर्यायके भवमें मुनि दीक्षा लेकर फिर तीर्थंकर प्रकृति बँधती है उनके ज्ञान और निर्वाण ये दो ही कल्याणक होते हैं। दूसरे और तीसरे प्रकारके तीर्थंकर महा विदेह क्षेत्रमें ही होते हैं। महा विदेहमें जो पंच कल्याणक तीर्थंकर हैं, उनके अतिरिक्त दो और तीन कल्याणकवाले भी तीर्थंकर होते हैं। तथा वे महाविदेहके जिस क्षेत्रमें दूसरे तीर्थंकर न हों वहाँ ही होते है । महाविदेह क्षेत्रके अलावा भरत-ऐरावत क्षेत्रोंमें जो तीर्थकर होते हैं उन सभीको नियमसे पंच कल्याणिक ही होते हैं।
अरिहन्तोंके सात भेद ऊपर जो तीर्थंकरोके तीन भेद कहे वे तीनों भेद अरिहन्तोंके समझना और उनके अनन्तर दूसरे भेद निम्नप्रकार हैं:
(४) सातिशय केवली-जिन अरिहन्तोंके तीर्थंकर प्रकृतिका उदय नहीं होता परन्तु गंधकुटी इत्यादि विशेषता होती है उन्हें सातिशय केवली कहते हैं।
(५) सामान्य केवली-जिन अरिहन्तोंके गंधकुटी इत्यादि विशेषता न हो उन्हें सामान्य केवली कहते हैं।
(६) अंतकृत केवली-जो अरिहन्त केवलज्ञान प्रगट होनेपर लघु अंतर्मुहूर्तकालमें ही निरिणको प्राप्त होते हैं उन्हें अंतकृत केवली कहा जाता है।
(७) उपसर्ग केवली-जिनके उपसर्ग अवस्थामें ही केवलज्ञान हुआ हो उन अरिहन्तोको उपसर्ग केवली कहा जाता है ( देखो सत्तास्वरूप गुजराती पृष्ठ ३८-३९ ) केवलज्ञान होनेके बाद उपसर्ग हो ही नहीं सकता।
अरिहन्तोंके ये भेद पुण्य और संयोगकी अपेक्षा से समझना; केवलज्ञानादि गुणोंमें तो सभी अरिहन्त समान ही हैं ।