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मोक्षशास्त्र
इस सूत्रका सिद्धान्त (१) जिस भावसे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है उस भावको अथवा उस प्रकृतिको जो जीव धर्म माने' या उपादेय माने तो वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि वह रागको-विकारको धर्म मानता है । जिस शुभभावसे तीर्थंकर नामकर्मका आस्रव-बन्ध हो उस भाव या उस प्रकृतिको सम्यग्दृष्टि उपादेय नही मानते । सम्यग्दृष्टिके जिस भावसे तीर्थंकर प्रकृति बँधती है वह पुण्यभाव है, उसे वे आदरणीय नही मानते। (देखो परमात्म प्रकाश अध्याय २, गाथा ५४ की टीका, पृष्ठ १६५)
(२) जिसे आत्माके स्वरूपकी प्रतीति नहीं उसके शुद्धभावरूप भक्ति अर्थात् भावभक्ति तो होती ही नहीं किन्तु इस सूत्र में कही हुई सत्के प्रति शुभरागवाली व्यवहार भक्ति अर्थात् द्रव्यभक्ति भी वास्तवमें नहीं होती, लौकिक भक्ति भले हो ( देखो परमात्म प्रकाश अध्याय २, गाथा १४३ की टीका, पृष्ठ २०३, २८८ )
(३) सम्यग्दृष्टिके सिवाय अन्य जीवोंके तीर्थंकर प्रकृति होती ही नहीं । इससे सम्यग्दर्शनका परम माहात्म्य जानकर जीवोंको उसे प्राप्त करनेके लिये मंथन करना चाहिये । सम्यग्दर्शनके अतिरिक्त धर्मका प्रारम्भ अन्य किसीसे नही अर्थात् सम्यग्दर्शन ही 'धर्मकी शुरूआत-इकाई है और सिद्धदशा उस धर्मकी पूर्णता है ॥२४॥
अव गोत्रकर्मके आसूर्वके कारण कहते हैं:
नीच गोत्रंके आलवके कारण परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च
नीचैर्गोत्रस्य ॥२५॥ अर्थ-[ परामनिदाप्रशंसे ] दूसरेकी निंदा और अपनी प्रशंसा करना [ सदसद्गुणोच्छादनोभावने च ] तथा प्रगट गुणोंको छिपाना और अप्रगट गुणोको प्रसिद्ध करना सो [ नीचैर्गोत्रस्य ] नीचगोत्र-कर्मके मानवके कारण हैं।