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मोक्षशास्त्र
'अव्यक्त' का अर्थ
जैसे मिट्टीके कोरे घड़ेको पानीके छींटे डालकर भिगोना प्रारंभ किया जाय तो थोड़े छीटे पड़ने पर भी वे ऐसे सूख जाते हैं कि देखनेवाला उस स्थानको भीगा हुआ नही कह सकता, तथापि युक्तिसे तो वह 'भीगा हुआ ही है,' यह बात मानना ही होगी, इसीप्रकार कान, नाक, जीभ और त्वचा यह चार इन्द्रियाँ अपने विषयोके साथ भिड़ती हैं तभी ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये पहिले ही, कुछ समय तक विषयका मंद संबंध रहनेसे ज्ञान ( होने का प्रारंभ हो जाने पर भी ) प्रगट मालूम नहीं होता, तथापि विषय का संबंध प्रारंभ हो गया है इसलिये ज्ञानका होना भी प्रारंभ हो गया हैयह बात युक्तिसे अवश्य मानना पड़ती है । उसे ( उस प्रारंभ हुए ज्ञानको) अव्यक्तज्ञान अथवा व्यंजनावग्रह कहते हैं ।
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जब व्यंजनावग्रहमें विषयका स्वरूप ही स्पष्ट नही जाना जाता तब फिर विशेषताकी शंका तथा समाधानरूप ईहादि ज्ञान तो कहाँसे हो सकता है ? इसलिये अव्यक्तका अवग्रहमात्र ही होता है । ईहादि नही होते ।
'व्यक्त' का अर्थ
मन तथा चक्षुके द्वारा होनेवाला ज्ञान विषयके साथ संबद्ध (स्पर्शित ) होकर नही हो सकता किन्तु दूर रहनेसे ही होता है, इसलिये मन और चक्षुके द्वारा जो ज्ञान होता है वह 'व्यक्त' कहलाता है । चक्षु तथा मनके द्वारा होनेवाला ज्ञान श्रव्यक्त कदापि नही होता, इसलिये उसके द्वारा श्रर्थावग्रह ही होता है ।
अव्यक्त और व्यक्त ज्ञान
उपरोक्त श्रव्यक्त ज्ञानका नाम व्यजनावग्रह है । जबसे विषयकी व्यक्तता भासित होने लगती है तभीसे उस ज्ञानको व्यक्तज्ञान कहते हैं, उसका नाम अर्थावग्रह है । यह अर्थावग्रह ( अर्थ सहित अवग्रह ) सभी इन्द्रियो तथा मनके द्वारा होता है ।