________________
(२०६
अध्याय १ परिशिष्ट ५ "उनको ( केवली भगवान्को ) समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे समक्ष संवेदनकी ( प्रत्यक्ष ज्ञानकी ) आलम्बन भूत समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।"
(प्रवचनसार गाथा २१ की टीका ) "जो ( पर्यायें ) अभी तक भी उत्पन्न नहीं हुई है, तथा जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई है, वे ( पर्यायें ) वास्तवमें विद्यमान होने पर भी ज्ञानके प्रति नियत होनेसे ( ज्ञानमें निश्चित्-स्थिर-लगी हुई होनेसे, ज्ञानमे सीधे ज्ञात होनेसे ) ज्ञान प्रत्यक्ष वर्तती हुई, पत्थरके स्तम्भमे अंकित भूत और भावी देवोंकी ( तीर्थंकर देवोंकी ) भांति अपने स्वरूपको अकंपतया (ज्ञानको ) अर्पित करती हुई ( वे पर्यायें ) विद्यमान ही है।"
(प्र० सा० गाथा-३८ की टीका) (५) "टीका-क्षायिक ज्ञान वास्तवमें एक समयमे ही सर्वतः ( सर्व प्रात्म प्रदेशोंसे ), वर्तमानमें वर्तते तथा भूत-भविष्य कालमें वर्तते उन समस्त पदार्थोको जानता है जिनमें पृथकरूपसेकै वर्तते स्वलक्षणरूप लक्ष्मीसे आलोकित अनेक प्रकारोके कारण वैचित्र्य प्रगट हुआ है और जिनमे परस्पर विरोधसे उत्पन्न होनेवाली असमान जातीयताके कारण वैषम्य प्रगट हुआ है.....उन्हें जानता है ।......जिनका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होनेसे क्षायिकज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वको (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे ) जानता है।"
(प्र० सार गाथा ४७ की टीका) .... (६) "जो एक ही साथ (-युगपत्) त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ ( तीनों काल और तीनों लोकके ) पदार्थोंको नहीं जानता उसे पर्याय सहित एक गव्य भी जानना शक्य नही है ।"
(प्र. सार गाथा ४८ ) (७) "... एक ज्ञायक भावका समस्त ज्ञेयको जाननेका स्वभाव - होनेसे क्रमशः प्रवर्तमान, अनन्त, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय समूह
[* द्रव्योके भिन्न-भिन्न वर्तनेवाले निज निज लक्षण-उन द्रव्योकी लक्ष्मीसंपत्ति-शोभा है ]
२७