________________
२१०
मोक्षशास्त्र वाले अगाध स्वभाव और गंभीर समस्त द्रव्यमात्रको-मानों वे द्रव्य ज्ञायकमें उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हो, समा गये हों, प्रतिविम्बित हुये हों, इस प्रकार-एक क्षणमें ही जो शुद्धात्मा प्रत्यक्ष करता है,..." (प्र. सार गाथा २०० की टीका)
(८) "घातिकर्मका नाश होने पर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य-यह अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं। वहाँ अनन्तदर्शनज्ञानसे तो, छह द्रव्योंसे भरपूर जो यह लोक है उसमें जीव अनन्तानन्त और पुद्गल उनसे भी अनन्तगुने हैं; और धर्म, अधर्म तथा आकाश यह तीन द्रव्य एवं असंख्य कालद्रव्य हैं-उन सर्व द्रव्योंकी भूतभविष्य-वर्तमान काल सम्बन्धी अनन्त पर्यायोंको भिन्न-भिन्न एक समयमें देखते और जानते हैं।"
[ अष्टपाहुड-भावपाहुड गा. १५० की पं. जयचन्द्रजी कृत टीका ]
(६) श्री पंचास्तिकायकी श्री जयसेनाचार्य कृत सं. टीका पृष्ठ ८७ गाथा ५ मे कहा है कि
......णाणाणाणं च पत्थि केवलिणो-गाथा ५ ।
"केवली भगवान्को ज्ञानाज्ञान नहीं होता, अर्थात् उन्हें किसी विषयमें ज्ञान और किसी विषयमें अज्ञान वर्तता है-ऐसा नहीं होता, किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही वर्तता है।"
(१०) भगवन्त भूतबलि आचार्य प्रणीत महाबन्ध प्रथम भाग... प्रकृति बन्धाधिकार पृष्ठ २७-२८ मे केवलज्ञानका स्वरूप निनोक्त कहा है:
केवली भगवान् त्रिकालावच्छिन्न लोक अलोक सम्बन्धी सम्पूर्ण गुण पर्यायोसे समन्वित अनन्त द्रव्योंको जानते हैं। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं हो सकता है, जो केवली भगवान् के ज्ञानका विषय न हो।
[** जिसका स्वभाव अगाध है और गम्भीर है, ऐसे समस्त द्रव्योको-भूत, वर्तमान तथा भावी कालका क्रमसे होनेवाली अनेक प्रकारकी अनन्त पर्यायोसे युक्त एक समयमें ही प्रत्यक्ष जानना आत्माका स्वभाव है।]