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अध्याय १ परिशिष्ट ५
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ज्ञानका धर्म ज्ञेय को जानना है और ज्ञेयका धर्म है ज्ञानका विषय होना । इनमे विषयविषयिभाव सम्बन्ध है । जब मति और श्रुतज्ञानके द्वारा भी यह जीव वर्तमानके सिवाय भूत तथा भविष्यत काल की बातोका परिज्ञान करता है, तब केवली भगवान्के द्वारा अतीत, अनागत, वर्तमान सभी पदार्थोंका ग्रहण (-ज्ञान ) करना युक्तियुक्त ही है ।..... यदि क्रम पूर्वक केवली भगवान् अनन्तानन्त पदार्थोंको जानते तो सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार न हो पाता । अनन्त काल व्यतीत होने पर भी पदार्थोकी अनन्त गणना अनन्त ही रहती । आत्माकी असाधारण निर्मलता होनेके कारण एक समयमें ही सकल पदार्थोंका ग्रहण ( - ज्ञान ) होता है ।
जब ज्ञान एक समयमें सम्पूर्ण जगत्का या विश्वके तत्त्वोंका बोध कर चुकता है, तब आगे वह कार्यहीन हो जायगा' यह आशङ्का भी युक्त नही है; कारण कालद्रव्यके निमित्तसे तथा अगुरुलघु गुरणके कारण समस्त वस्तुओमें क्षण क्षणमें परिणमन - परिवर्तन होता है । जो कल भविष्यत् था वह आज वर्तमान बनकर आगे अतीतका रूप धारण करता है | इसप्रकार परिवर्तनका चक्र सदा चलनेके कारण ज्ञेयके परिणमनके अनुसार ज्ञानमें भी परिणमन होता है । जगतके जितने पदार्थ हैं, उतनी ही केवलज्ञानकी शक्ति या मर्यादा नहीं है । केवलज्ञान अनन्त है । यदि लोक अनन्त गुणित भी होता, तो केवलज्ञान सिंधुमें वह बिन्दु तुल्य समा जाता ।...अनन्त केवलज्ञानके द्वारा अनन्त जीव तथा अनन्त आकाशादिका ग्रहरण होने पर भी वे पदार्थ सान्त नही होते हैं । अनन्तज्ञान अनन्त पदार्थ या पदार्थोको अनन्तरूपसे बताता है, इस कारण ज्ञेय और ज्ञानकी अनन्तता अबावित रहती है ।
[ महाबन्ध प्रथम भाग पृष्ठ २७ तथा घवला पुस्तक १३ पृष्ठ ३४६ से ३५३ ] उपरोक्त आधारोंसे निम्नोक्त मंतव्य मिथ्या सिद्ध होते हैं(१) केवली भगवान् भूत और वर्तमान कालवर्ती पर्यायों को ही जानते हैं और भविष्यत् पर्यायोंको वे हों तब जानते हैं ।