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मोक्षशास्त्र ऐसा केवलज्ञान होता है ॥८॥ इस प्रकारके गुणोंवाला केवलज्ञान होता है । शंका-गुणमें गुण कैसे हो सकता है ?
समाधान-यहाँ केवलज्ञानके द्वारा केवलज्ञानीका निर्देश किया गया है। इस प्रकारके केवली होते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । (२) श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत प्रवचनसार गाथा ३७ में कहा है
तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासि ।
वट्टन्ते ते गाणे विसेसदो दव्वजादीणं ॥ ३७ ॥ __ अर्थ-"उन (जीवादी) द्रव्य जातियोंकी समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक (वर्तमान ) पर्यायोंकी भाँति विशिष्टतापूर्वक (अपने-अपने भिन्न-भिन्न स्वरूपसे) ज्ञानमें वर्तती हैं।"
इस श्लोक की श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीकामें कहा है कि___ "टीका-(जीवादी ) समस्तद्रव्य जातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों कालकी मर्यादा जितनी होनेसे (वे तीनों कालमें उत्पन्न हुआ करती है इसलिये,) उनकी (-उन समस्त द्रव्य जातियोंकी,) क्रम पूर्वक तपती हुई स्वरूप सम्पदावाली, (एकके बाद दूसरी प्रगट होनेवाली), विद्यमानता और अविद्यमानताको प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं, वे सब तात्कालिक (वर्तमान कालीन ) पर्यायों की भाँति, अत्यन्त मिश्रित होने पर भी, सर्व पर्यायोंके विशिष्ट लक्षण स्पष्ट ज्ञात हो इसप्रकार, एक क्षणमें ही ज्ञान मंदिरमें स्थितिको प्राप्त होती हैं।
इस गाथा की सं. टीकामें श्री जयसेनाचार्यने कहा है कि-"..... ज्ञानमे समस्त द्रव्यों की तीनों कालकी पर्यायें एक साथ ज्ञात होने पर भी प्रत्येक पर्यायका विशिष्ट स्वरूप, प्रदेश, काल, आकारादि विशेषताएँ स्पष्ट ज्ञात होती हैं, संकर-व्यतिकर नही होते....."