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अध्याय ८ सूत्र ६-७
घर टीका प्रश्न-अभव्यजीवके मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानकी प्राप्ति करनेकी सामर्थ्य नहीं है, यदि यह सामर्थ्य हो तो अभव्यत्व नही कहा जा सकता; इसलिये इन दो ज्ञानकी सामर्थ्य से रहित उसके इन दो ज्ञानका आवरण कहना सो क्या निरर्थक नही है ?
उचर-द्रव्याथिकनयसे अभव्यजीवके भी इन दोनों ज्ञानको शक्ति विद्यमान है और पर्यायाथिकनयसे अभव्यजीव ये दोनों ज्ञानरूप अपने अपराधसे परिणमता नही है, इससे उसके किसी समय भी उसकी व्यक्ति नही होती; शक्तिमात्र है किंतु प्रगटरूपसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अभव्यके नहीं होते। इसलिये शक्तिमेसे व्यक्ति न होनेके निमित्तरूप आवरण कर्म होना ही चाहिये, इसीलिये अभव्य जीवके भी मनःपर्ययज्ञानावरण तथा केवलज्ञानावरण विद्यमान है।
दर्शनावरण कर्म के ९ भेद चतुरचतुरखधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचला
प्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥ ७ ॥
अर्थ-[चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां] चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण [निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ] निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये नव भेद दर्शनावरण कर्मके हैं।
टीका १-छमस्थ जीवोंके दर्शन और ज्ञान क्रमसे होते हैं अर्थात् पहले दर्शन और पीछे ज्ञान होता है; परन्तु केवली भगवानके दर्शन और ज्ञान दोनों एक साथ होते हैं क्योंकि दर्शन और ज्ञान दोनोंके बाधक कर्मोका क्षय एक साथ होता है।
२-मनःपर्ययदर्शन नहीं होता, क्योंकि मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है। इसीलिये मनःपर्ययदर्शनावरण कर्म नहीं है।