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मोक्षशास्त्र कोई असर पहुँचाया है, यह मानना सर्वथा मिथ्या है । इसीप्रकार जीव जब विकार करता है तब पुद्गल कार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूप परिण मित होती है,-ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । जीवको विकारीरूपमें कर्म परिणमित करता है और कर्मको जीव परिणमित करता है, इस प्रकार सम्बन्ध बताने वाला व्यवहार कथन है । वास्तवमें जड़को कर्मरूपमें जीव परिणमित नही कर सकता और कर्म जीवको विकारी नही कर सकता, गोमट्टसार आदि कर्म शास्त्रोंका इसप्रकार अर्थ करना ही न्यायपूर्ण है।
प्रश्न:-बंधके कारणों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांचों मोक्षशास्त्रमे कहे है, और दूसरे आचार्य कषाय तथा योग दो ही बतलाते है, इस प्रकार वे मिथ्यात्व अविरति और प्रमादको कषाय का भेद मानते है । कषाय चारित्रमोहनीयका भेद है, इससे यह प्रतीत होता है कि चारित्रभोहनीय ही सभी कर्मोका कारण है । क्या यह कथन ठीक है ?
उत्तर:-मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद कषायके उपभेद हैं किंतु इससे यह मानना ठीक नहीं है कि कषाय चारित्रमोहनीयका भेद है। मिथ्यात्व महा कषाय है । जब 'कषाय' को सामान्य अर्थ में लेते है तब दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनोरूप माने जाते है, क्योकि कषायमे मिथ्यादर्शनका समावेश हो जाता है जब कषायको विशेष अर्थ में प्रयुक्त करते हैं तब वह चारित्र मोहनीयका भेद कहलाता है । चारित्र मोहनीय कर्म उन सब कर्मोका कारण नहीं है, किन्तु जीवका मोहभाव उन सात अथवा पाठ कर्मोके बंध का निमित्त है।
(९) प्रश्न:-सात प्रकृतियोंका क्षय अथवा उपशमादि होता है सो वह व्यवहारसम्यग्दर्शन है या निश्चयसम्यग्दर्शन ?
उचरः-वह निश्चयसम्यग्दर्शन है ।
प्रश्न:--सिद्ध भगवानके व्यवहारसम्यग्दर्शन होता है या निश्चयसम्यग्दर्शन ?