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मोक्षशास्त्र वस्तु लेने देने की जो क्रिया है वह तो परसे स्वतः होने योग्य परद्रव्यकी क्रिया है, और परद्रव्यकी क्रिया (-पर्याय ) में जीवका व्यवहार नही है।
४-जिससे स्व के तथा परके प्रात्मधर्मको वृद्धि हो ऐसा दान गृहस्थोंका एक मुख्य व्रत है। इस व्रतको अतिथिसंविभाग व्रत कहते है । श्रावकोंके प्रतिदिन करने योग्य छह कर्तव्योमें भी दानका समावेश होता है।
५-इस अधिकारमें शुभास्रवका वर्णन है। सम्यग्दृष्टि-जीवोंको शुद्धताके लक्षसे शुभभावरूप दान कैसे हो यह इस सूत्र में बताया है । सम्यग्दृष्टि ऐसा कभी नही मानते कि शुभभावसे धर्म होता है, किन्तु निज स्वरूपमें स्थिर नहीं रह सकते तब शुद्धताके लक्ष्यसे अशुभभाव दूर होकर शुभभाव रह जाता है अर्थात् स्वरूप सन्मुख जागृतिका मंद प्रयत्न करने से-अशुभराग न होकर शुभराग होता है। वहाँ ऐसा समझता है कि जितना अशुभराग दूर हुआ उतना लाभ है और जो शुभराग रहा वह आस्रव है, बन्ध मार्ग है ऐसा समझकर उसे भी दूर करने की भावना रहती है, इसीलिये उनके आंशिक शुद्धताका लाभ होता है। मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकारका दान नही कर सकते । यद्यपि वे सम्यग्दृष्टिकी तरह दानकी बाह्य क्रिया करते है किन्तु इस सूत्रमें कहा हुआ दानका लक्षण उनके लागू नहीं होता क्योंकि उसे शुद्धताकी प्रतीति नही है और वह शुभको धर्म और अपना स्वरूप मानता है । इस सूत्रमें कहा हुआ दान सम्यग्दृष्टिके ही लागू होता है।
यदि इस सूत्रका सामान्य अर्थ किया जावे तो वह सब जीवोंके लागू हो; आहार आदि तथा धर्म-उपकरण या धन आदि देनेकी जो बाह्य क्रिया है सो दान नही परन्तु उस समय जीवका जो शुभभाव है सो दान है। श्रीपूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि में इस सूत्रकी सूचनिकामें दानको व्याख्या निम्नप्रकार करते है।
_ 'शीलविधानमें अर्थात् शिक्षावतोंके वर्णनमें अतिथिसंविभागवत कहा गया किन्तु उसमें दानका लक्षण नहीं बताया इसलिये वह कहना चाहिये अतएव आचार्य दानके लक्षणका सूत्र कहते हैं।।
उपरोक्त कथनसे मालूम होता है कि इस सूत्र में कहा हुआ दान सम्यग्दृष्टि जीवके शुभभावरूप है।