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मध्याय ७ सूत्र ३८-३६
६०१ ७-इस सूत्र में प्रयोग किया गया स्व शब्दका अर्थ धन होता है और धनका अर्थ होता है 'अपने स्वामित्व-अधिकारको वस्तु ।'
८. करुणादान करुणादानका भाव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको होते हैं किन्तु उनके भावमें महान् अन्तर है। यह दानके चार भेद हैं-१. आहारदान २. औषधिदान ३. अभयदान और ४. ज्ञानदान । आवश्यकतावाले जैन, अजैन, मनुष्य या तिर्यंच आदि किसी भी प्राणीके प्रति अनुकम्पा बुद्धिसे यह दान हो सकता है । मुनिको जो आहारदान दिया जाता है वह करुणादान नही किन्तु भक्तिदान है । जो अपनेसे महान गुण धारण करनेवाले हों उनके प्रति भक्तिदान होता है। इस सम्बन्धी विशेष वर्णन इसके वादके सूत्रकी टीकामें किया है ॥३८॥
दानमें विशेषता विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥३॥
अर्थ-[ विधिद्रव्यदापात्रविशेषात् ] विधि, द्रव्य, दातृ और पात्रकी विशेषतासे [ तद्विशेषः । दान में विशेषता होती है।
टीका १. विधिविशेष-नवधाभक्तिके क्रमको विधिविशेष कहते हैं।
द्रव्य विशेष-तप, स्वाध्याय आदिकी वृद्धिमे कारण ऐसे आहारादिकको द्रव्यविशेष कहते है।
'दावृविशेष-जो दातार श्रद्धा आदि सात गुणोंसहित हो उसे दाविशेष कहते हैं।
पात्रविशेष-जो सम्यक् चारित्र आदि गुणोंसहित हो ऐसे मुनि आदिको पात्रविशेष कहते हैं।
२. नवधाभक्तिका स्वरूप (१) संग्रह-(प्रतिग्रहण ) 'पधारो, पधारो, यहां पुद्ध नाहार जल है' इत्यादि शब्दोंके द्वारा भक्ति सत्कार पूर्वक विनयसे मुनिका आह्वान करना।