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अध्याय ५ उपसंहार
४६७ (२) यह शरीर यह सिद्ध करता है कि शरीर संयोगी, जड़, रूपी पदार्थ है; यह भी उसी जगह है; इसका मूल अनादि-अनंत पुद्गल द्रव्य है।
(३) वह मनुष्य आकाशके किसी भागमे हमेशा होता है, इसीलिये उसी स्थान पर आकाश भी है।
(४) उस मनुष्यकी एक अवस्था दूर होकर दूसरी अवस्था होती है। इस अपेक्षासे उसी स्थानपर काल द्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि होती है।
(५) उस मनुष्यके जीवके असंख्यात प्रदेशमें समय समय पर एक क्षेत्रावगाह रूपसे नोकर्म वर्गणाएँ और नवीन-नवीन कर्म बंधकर वहाँ स्थिर होते हैं, इस दृष्टि से उसी स्थान पर अधर्मद्रव्यकी सिद्धि होती है।
(६) उस मनुष्यके जीवके असख्यात प्रदेशके साथ प्रतिसमय अनेक परमाणु आते जाते हैं, इस दृष्टिसे उसी स्थान पर धर्मद्रव्यकी सिद्धि होती है।
इस तरह छहों द्रव्योंका एक क्षेत्रमे अस्तित्व सिद्ध हुआ । (११) अन्य प्रकारसे कह द्रव्योंके अस्तित्वकी सिद्धि
१-२ जीवद्रव्य और पुदलद्रव्य । जो स्थूल पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं ऐसे शरीर, पुस्तक, पत्थर, लकड़ी इत्यादिमें ज्ञान नही है अर्थात् वे अजीव है। इन पदार्थोको तो अज्ञानी भी देखता है। उन पदार्थोमे वृद्धि-ह्रास होता रहता है अर्थात् वे मिल जाते हैं और बिछुड़ जाते हैं। ऐसे दृष्टिगोचर होनेवाले पदार्थोको पुद्गल कहा जाता है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श ये पुद्गल द्रव्यके गुण हैं। इसीलिये पुद्गल द्रव्य काला-सफेद, सुगन्ध-दुर्गन्ध, खट्टा-मीठा, हल्काभारी, इत्यादि रूपसे जाना जाता है; यह सब पुद्गलकी ही अवस्थायें हैं। जीव तो काला-सफेद, सुगंधित-दुर्गन्धित, इत्यादि रूपसे नही है, जीव तो ज्ञानवाला है। शब्द सुनाई देता है या बोला जाता है वह भी पुद्गलकी ही हालत है। उन पुद्गलोसे जीव अलग है। जगतमे किसी अचेत मनुष्यको देखकर कहा जाता है कि इसका चेतन कहां चला गया ? अर्थात् यह शरीर तो अजीव है, वह तो जानता नही, किन्तु जाननेवाला ज्ञान कहाँ चला गया ? अर्थात् जीव कहाँ गया ? इसमें जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योकी सिद्धि हुई।