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मोक्षशास्त्र
(आहारादि ) पुद्रलद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुमा आत्मा (-मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावका प्रत्याख्यान (-त्याग ) नहीं करता, इसी प्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नहीं त्यागता" इसमें जीर्वका बंधसाधक भाव नैमित्तिक है और उस परद्रव्य निमित्त हैं । ( स० सार गाथा २८६-८७ की टीका)
पंचाध्यायी शास्त्रमें नयाभासोंके वर्णनमें 'जीव शरीरका कुछ कर सकता नहीं है-परस्पर बंध्य-बंधकभाव नहीं है। ऐसा कहकर शरीर और आत्माको निमित्तनैमित्तिक भावका प्रयोजन क्या है उसके उत्तरमें 'प्रत्येक द्रव्य स्वयं और स्वतः परिगमन करता है वहाँ निमित्तपनेका कुछ प्रयोजन ही नहीं है ऐसा समाधान श्लोक ५७१ में कहा है।
श्लोक-अथचेदवश्यमेतन्निमित्त नैमित्तिकत्वमास्ति मिथः ।
न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ॥५७१
अन्वयार्थ:-[ अथ चेत् ] यदि कदाचित् यह कहा जाय कि [ मिथः ] परस्पर [ एतन्निमित्तनैमित्तिकत्वं ] इन दोनोंमें निमित्त और नैमित्तिकपना [ अवश्यंअस्ति ] अवश्य है तो इसप्रकार कहना भी [ न ] ठीक नहीं है, [ यतः ] क्योंकि [ स्वयं ] स्वयं [ वा ] अथवा [ स्वतः], स्वतः [ परिणममानस्य ] परिणमन करनेवाली वस्तुको [ निमित्ततया ] निमित्तपनेसे [किं ] क्या फायदा है अर्थात् स्वतः परिणमनशील बस्तुको निमित्त कारणसे कुछ भी प्रयोजन नही है। इस विषयमें स्पष्टताके लिये पंचाध्यायी भाग १ श्लो० ५६५ से ५८५ तक देखना चाहिये।
प्रयोजनभूत इसतरह छह द्रव्यका स्वरूप अनेक प्रकारसे वर्णन किया। इन छह द्रव्योंमें प्रतिसमय परिणमन होता है उसे, 'पर्याय' (हालत, अवस्था Condition ) कहते हैं। धर्म-अधर्म-आकाश और काल इन चार द्रव्यों की पर्याय तो सदा शुद्ध ही है, अवशिष्ट जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योमें शुद्ध पर्याय होती है अथवा अशुद्ध पर्याय भी हो सकती है।
__ जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमेंसे भी पुदल द्रव्यमें ज्ञान नहीं है, उसमें जानपना (ज्ञानत्व ) नही इसीसे उसमें ज्ञानको विपरीतरूप भूल