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________________ श्रध्याय ५ उपसंहाय ४८५ नहीं; श्रतएव पुद्गलको सुख या दुःख नहीं होता । यथार्थ ज्ञानके द्वारा सुख और विपरीतज्ञानके द्वारा दुःख होता है, परन्तु पुद्गल द्रव्यमें ज्ञान गुण ही नहीं, इसीलिये उसके सुख दुःख नही; उसमें सुख गुरण ही नही । ऐसा होनेसे तो पुद्गल द्रव्यके शुद्ध दशा हो या अशुद्धदशा, दोनों समान हैं । शरीर पुद्गल द्रव्यकी अवस्था है इसलिये शरीर में सुख दुःख नहीं होते शरीर चाहे निरोग हो या रोगी, उसके साथ सुख दुःखका सम्बन्ध नहीं है । अब शेष रहा जाननेवाला जीवद्रव्य छहों द्रव्योमें यह एक ही द्रव्य ज्ञानशक्तिवाला है । जीवमें ज्ञानगुरण है और ज्ञानका फल सुख है, इसलिये जीवमें सुखगुरण है । यदि यथार्थ ज्ञान करे तो सुख हो, परन्तु जीव अपने ज्ञानस्वभावको नही पहचानता और ज्ञानसे भिन्न अन्य वस्तुओं में सुखकी कल्पना करता है । यह उसके ज्ञानकी भूल है और उस भूलको लेकर ही जीवके दुःख है । जो अज्ञान है सो जीव की शुद्ध पर्याय है, जीवकी अशुद्ध पर्याय दुःखरूप है अतः उस दशाको दूर कर यथार्थ ज्ञानके द्वारा शुद्ध दशा करनेका उपाय समझाया जाता है; क्योकि सभी जीव सुख चाहते है और सुख तो जीवकी शुद्धदशामे ही है, इसलिये जो छह द्रव्य जाने उनमेसे जीवके अतिरिक्त पाँच द्रव्योके गुरण पर्यायके साथ तो जीवको प्रयोजन नही है किंतु जीवके अपने गुरण पर्यायके साथ ही प्रयोजन है । इसप्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र के पाँचवें अध्यायकी गुजराती टीकाका हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुआ ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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