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• मोक्षशास्त्र (१) जो आत्माके शुद्धस्वरूपकी अरुचि है सो अनन्तानुवन्धी क्रोध है।
(२) 'मैं परका कर सकता हूँ' ऐसी मान्यता पूर्वक जो अहङ्कार है सो अनन्तानुबन्धी मान-अभिमान है।
(३) अपना स्वाधीन सत्य स्वरूप समझमें नहीं आता ऐसी वक्रतामें समझ शक्तिको छुपाकर आत्माको ठगना सो अनन्तानुवन्धी माया है ।
(४) पुण्यादि विकारसे और परसे लाभ मानकर अपनी विकारी दशाकी वृद्धि करना सो अनन्तानुबन्धी लोभ है।
अनंतानुबंधी कषाय आत्माके स्वरूपाचरण चारित्रको रोकती है। शुद्धात्माके अनुभवको स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं। इसका प्रारम्भ चौथे गुरणस्थानसे होता है और चौदहवें गुणस्थानमें इसकी पूर्णता होकर सिद्धदशा प्रगट होती है ॥६॥
__ यब आयुकर्मके चार भेद बतलाते हैं
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥
अर्थ-[ नारक तैर्यग्योनमानुषदेवानि ] नरकायु, तिर्यंचायु, मनुप्यायु और देवायु ये चार भेद आयुकर्मके है ॥१०॥
.. नामकर्मके ४२ भेद बतलाते हैं गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थान
संहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघाता
तपोद्योतोच्छवासविहायोगतयः प्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥११॥