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मध्याय ८ सूत्र भेद हैं, और [अनन्तानुवंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनविकल्पाः च ] प्रनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलनके भेदसे तथा [ एफशः क्रोध मान माया लोभाः ] इन प्रत्येकके क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चार प्रकार-ये सोलह भेद कषायवेदनीयके हैं। इस तरह मोहनीयके कुल अट्ठाईस भेद हैं।
नोट-अकपायवेदनीय और कषायवेदनीयका चारित्रमोहनीयमे समावेश हो जाता है इसीलिये इनको अलग नही गिना गया है।
टीका १-मोहनीयकर्मके मुख्य दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । जीवका मिथ्यात्वभाव ही ससारका मूल है इसमे मिथ्यात्व मोहनीयकम निमित्त है; यह दर्शन मोहनीयका एक भेद है । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं-मिथ्यात्वप्रकृति, सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृति । इन तीनमेसे एक मिथ्यात्व प्रकृतिका ही बन्ध होता है। जीवका ऐसा कोई भाव नहीं है कि जिसका निमित्त पाकर सम्यक्त्वमोहनीयप्रकृति या सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति बँधे; जीवके प्रथम' सम्यग्दर्शन प्रगट होने के कालमे ( उपशम कालमे ) मिथ्यात्वप्रकृतिके तीन टुकडे हो जाते हैं, इनमेसे एक मिथ्यात्वरूपमे रहता है, एक सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे होता है और एक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिरूपसे होता है । चारित्र मोहनीयके पच्चीस भेद हैं उनके नाम सूत्रमे ही बतलाये है । इसप्रकार सब मिलकर मोहनीयकर्मके अट्ठाईस भेद हैं।
२-इस सूत्र में आये हुये शब्दोका अर्थ जैनसिद्धान्त प्रवेशिकामेसे देख लेना।
३-यहाँ हास्यादिक नवको अकषायवेदनीय कहा है, इसे नोकषायवेदनीय भी कहते हैं।
४-अनन्तानुबंधीका अर्थ-अनन्त-मिथ्यात्व, संसार; अनुबंधीजो इनको अनुसरण कर वन्धको प्राप्त हो । मिथ्यात्वको अनुसरण कर जो कपाय बंधती है उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोधमान-माया-लोभकी व्याख्या निम्नप्रकार है