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अध्याय २ उपसंहार का अवलम्बन लेता है उसमे सत्देव, सत्गुरु, सत्शास्त्र तथा भगवान की दिव्यध्वनि निमित्तमात्र है; तथा उस ओरका राग विकल्पको टोल करके जीव जव परमपारिणामिकभावका ( ज्ञायकभावका') प्राश्रय लेता है तब उसके धर्म प्रगट होता है और उस समय रागका अवलम्बन छूट जाता है। -धर्म प्रगट होनेके पूर्व राग किस दिशामें ढला था यह बतानेके लिए देवगुरुशास्त्र या दिव्यध्वनि इत्यादिक निमित्त कहने में आते है, परन्तु निमित्त की मुख्यतासे किसी भी समय धर्म होता है यह बतानेके लिये निमित्त का ज्ञान नहीं कराया जाता।
(२) किसी समय उपादान कारणकी मुख्यतासे धर्म होता है और किसी समय निमित्तकारणकी मुख्यतासे धर्म होता है-अगर ऐसा मान लिया जाय तो धर्म करनेके लिये कोई त्रिकालवर्ती अबाधित नियम नही रहेगा; और यदि कोई नियमरूप सिद्धान्त न हो तो धर्म किस समय उपादान कारणकी मुख्यतासे होगा और किस समय निमित्तकारणकी मुख्यतासे होगा यह निश्चित् न होनेसे जीव कभी धर्म नहीं कर सकेगा।
(३) धर्म करनेके लिये त्रैकालिक एकरूप नियम न हो ऐसा नहीं हो सकता, इसलिये यह समझना चाहिये कि जो जीव पहिले धर्मको प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में धर्मको प्राप्त हो रहे है और भविष्यमे धर्मको प्राप्त करेगे उन सबके पारिवामिकभावका ही आश्रय है, किसी अन्यका नहीं।
प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीव ही सम्यग्दर्शन होनेके बाद सच्चे देव गुरु शासका अवलंबन लेते हैं और उसके आश्रयसे उन्हें धर्म प्राप्त होता है तो वहाँ निमित्तकी मुख्यतासे धर्मका कार्य हुआ या नहीं ?
उचर-नही, निमित्तकी मुख्यता से कही भी कोई कार्य होता ही नही है । सम्यग्दृष्टिके जो' राग और रागका अवलंवन है उसका भी खेद रहता है, सच्चे देव गुरु या शास्त्रका भी कोई जीव अवलंबन ले ही नही सकता, क्योंकि वह भी परद्रव्य हैं। फिर भी जो यह कहा जाता है कि-ज्ञानीजन सच्चे देवगुरु शास्त्रका अवलंबन लेते हैं वह उपचार है, कथनमात्र है; वास्तव मे परद्रव्यका अवलंबन नही, किन्तु वहाँ अपनी अशुद्ध अवस्थारूप रागका ही अवलंबन है ।