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मोक्षशास्त्र उपरोक्त प्रकारसे मात्र उपादान ( परमपारिणाभिकभाव ) से धर्म होता है ऐसा कहनेसे एकान्त हो जायगा।
उत्तर-यह प्रश्न सम्यक्अनेकान्त, मिथ्याअनेकान्त, और सम्यक् और मिथ्या एकान्तके स्वरूपकी अज्ञानता बतलाता है। परमपारिणामिक भावके आश्रयसे धर्म हो और दूसरे किसी भावके आश्रयसे धर्म न हो इस प्रकार अस्तिनास्ति स्वरूप सम्यक् अनेकान्त है। प्रश्नमें बतलाया गया अनेकान्त मिथ्याअनेकान्त है। और यदि इस प्रश्नमें बतलाया गया सिद्धान्त स्वीकार किया जाय तो वह मिथ्याएकान्त होता है, क्योंकि यदि किसी समय निमित्तकी मुख्यतासे (अर्थात् परद्रव्यकी मुख्यतासे ) धर्म हो तो परद्रव्य और स्वद्रव्य दोनों एक हो जाय, जिससे मिथ्याएकान्त होता है ?
जिससमय उपादान कार्य परिणत होता है उसी कार्यके समय निमित्त कारण भी स्वयं उपस्थित होता है, लेकिन निमित्तकी मुख्यतासे किसी भी कार्य किसी भी समय नहीं होता, ऐसा नियम दिखानेके लिए श्री बनारसीदासजीने कहा है कि
"उपादान निज गुण जहाँ, तहाँ निमित्त पर होय, भदज्ञान परवान विधि, विरला बूझे कोय, उपादान बल जहँ तहाँ, नहीं निमित्तको दाव, एक चक्रसों रथ चल, रविको यहै स्वभाव, सधै वस्तु असहाय जहँ, तहँ निमित्त है कौन,
ज्यों जहाज परवाहमें, तिरै सहज बिन पौन,"
प्रश्न-तब फिर शास्त्रमें यह तो कहा है कि सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और भगवानकी दिव्यध्वनिके आश्रयसे धर्म होता है, इसलिए, कभी उन निमित्तोंकी मुख्यतासे धर्म होता है ऐसा माननेमें क्या दोष है ?
उत्तर-सच्चे देव, शास्त्र, गुरु आदिसे धर्म होता है ऐसा कथन व्यवहारनयका है, उसका परमार्थ तो ऐसा है कि परमशुद्धनिश्चयनयग्राहक परमपारिणामिकभावके आश्रयसे ( अर्थात निज त्रिकाल शुद्ध चैतन्य परमात्मभाव-ज्ञायकभावसे ) धर्म होता है; जीव शुभभावरूप राग