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________________ अध्याय २ उपसंहार २८७ प्रवाहरूपसे रहनेवाला अनादि अनन्त ध्रौव्यांश यह तीनों अभेदरूपसे पारिगामिकभाव है, और उसे द्रव्यदृष्टिसे परमपारिणामिकभाव कहा जाता है। ३. उत्पाद और व्यय-पर्याय अब उत्पाद और व्ययपर्यायके सम्बन्धमें कहते हैं:-व्ययपर्याय अभावरूप है और वह पारिणामिक भावसे है। द्रव्यके अनन्त गुणोंकी प्रतिसमय उत्पादपर्याय होती रहती है, उसमें जिन गुणोंकी पर्याय अनादिकालसे अविकारी है वह पारिणामिकभावसे है और वह पर्याय है इसलिए पर्यायाथिकनयसे पारिणामिकभाव है। परकी अपेक्षा रखनेवाले जीवके भावोके चार विभाग होते है१-प्रीपशमिकभाव, २-क्षायोपशमिकभाव, ३-क्षायिकभाव और ४प्रौदयिकभाव । इन चार भावोंका स्वरूप पहिले इस अध्यायके सूत्र १ की टीकामें कहा है। ४. धर्म करनेके लिये पाँच भावोंका ज्ञान कैसे उपयोगी है ? यदि जीव इन पाँच भावोंके स्वरूपको जान ले तो वह स्वयं यह समझ सकता है कि किस भावके आधारसे धर्म होता है । पाँच भावोंमेंसे पारिणामिकभावके अतिरिक्त शेष चार भावोंमेंसे किसीके लक्ष्यसे धर्म नहीं होता, और जो पर्यायार्थिकनयसे पारिणामिकभाव है उसके आश्रयसे भी धर्म नही होता-यह वह समझ सकता है। जब कि अपने पर्यायाथिकनयसे वर्तनेवाले पारिणामिकभावके आश्रयसे भी धर्म नहीं होता तब फिर निमित्त जो कि परद्रव्य है-उसके आश्रयसे या लक्ष्यसे तो धर्म हो ही नहीं सकता; यह भी वह समझता है। और परमपारिणामिकभावके आश्रयसे ही धर्म होता है ऐसा वह समझता ५. उपादानकारण और निमिचकारणके सम्बन्धमें प्रश्न-जैनधर्मने वस्तुका स्वरूप अनेकान्त कहा है, इसलिए किसी समय उपादान (परमपारिणामिकभाव) की मुख्यतासे धर्म हो और किसी समय निमित्त (परद्रव्य ) की मुख्यतासे धर्म हो, ऐसा होना चाहिए।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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