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अध्याय ८ सूत्र २३६३६ २-निर्जराके दूसरी तरहसे भी दो भेद होते हैं उनका वर्णन-(१) अकाम निर्जरा- इसमें बाह्यनिमित्तं तो यह है कि इच्छा रहित भूख-प्यास सहन करना और वहां यदि मंदकषायरूप भाव हो तो व्यवहारसे पाप की निर्जरा और देवादि पुण्यका बंध हो —— इसे प्रकाम निर्जरा कहते है | जिस अकाम निर्जरासे जीवकी गति कुछ ऊँची होती है यह प्रतिकूल संयोगके समय जीव मंद कषाय करता है उससे होती है किन्तु कर्म जीवको ऊंची गतिमें नही ले जाते ।
(२) सकाम निर्जरा - इसकी व्याख्या ऊपर अविपाक निर्जरा अनुसार समझना, तथा यहाँ विशेष बात यह है कि जीवके उपादानको अस्ति प्रथम दिखाकर यह निर्जरामें भी पुरुषार्थका कारणपना दिखाना है । ३ - इस सूत्र में जो 'च' शब्द है वह नवमे श्रध्यायके तीसरे सूत्र (तपसा निर्जरा च ) के साथ सम्बन्ध कराता है ।
यहाँ अनुभागवंधका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ अब प्रदेशका वर्णन करते हैं प्रदेशबंधका स्वरूप
नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनं तानं तप्रदेशाः ॥ २४ ॥
अर्थ -- [ नाम प्रत्ययाः ] ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियोका कारण, [ सर्वतः ] सर्वं तरफसे अर्थात् समस्त भावोमें [ योग विशेषात् ] योग विशेषसे [ सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः ] सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाह रूप स्थित [ सर्वात्मप्रदेशेषु ] और सर्व आत्मप्रदेशोमे [ अनंतानंतप्रदेशाः ] जो कर्मपुद्गलके अनन्तानन्त प्रदेश है सो प्रदेशबध है ।
निम्न छह बाते इस सूत्र बतलाई हैं:
(१) सर्व कर्मके ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतिरूप, उत्तर प्रकृतिरूप और उत्तरोत्तरप्रकृतिरूप होनेका कारण कार्मारणवर्गरणा है ।
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